भारत की सांस्कृतिक धरोहर में कई ऐसी परंपराएं शामिल हैं, जिनमें लोककला और अध्यात्म का अद्भुत मेल दिखाई देता है। भूत कोला भी ऐसी ही एक प्राचीन और रहस्यमयी परंपरा है। यह मुख्य रूप से तटीय कर्नाटक, विशेषकर दक्षिण कन्नड़ और उडुपी जिलों में प्रचलित है। “भूत” शब्द का अर्थ यहां साधारण भूत-प्रेत नहीं बल्कि स्थानीय देवताओं, आत्माओं और प्रकृति की शक्तिशाली चीजों से जुड़ा है। “कोला” का मतलब होता है अनुष्ठान या उत्सव। इस तरह भूत कोला का अर्थ हुआ देवात्माओं या स्थानीय रक्षकों की पूजा के साथ किया जाने वाला नृत्य और धार्मिक अनुष्ठान।
कैसे हुआ हजार साल पुरानी परम्परा का उद्भव
यहां के जानकार मानते हैं कि भूत कोला की परंपरा लगभग हजार साल पुरानी है और इसका उद्भव तब हुआ जब लोग प्रकृति की शक्तियों को पूजते थे। समुद्र, जंगल और खेतों से जुड़ी आत्माओं को सम्मान देने और उनसे सुरक्षा पाने के लिए यह नृत्य विकसित हुआ था। समय के साथ इसमें संगीत, नृत्य और लोककथाएं जुड़ती गईं और यह एक भव्य धार्मिक उत्सव का रूप ले बैठा। भूत कोला का एक बड़ा महत्व यह भी है कि यह यहां की सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करता है। अनुष्ठान के दौरान देवता या आत्मा से संवाद करने की मान्यता है। इस संवाद के माध्यम से गांव के विवाद सुलझाए जाते हैं, निर्णय लिए जाते हैं और समुदाय की समस्याओं का समाधान खोजा जाता है।

इस तरह भूत कोला केवल एक नृत्य या पूजा नहीं बल्कि एक सामाजिक न्याय प्रणाली और जनविश्वास का प्रतीक भी बन चुकी थी और बल्कि आज भी है। इतिहास में भूत कोला से जुड़ी कथाएं मौखिक परंपराओं के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं। लोकगायक, नृत्यांगनाएं और परिवार इसे संजोए हुए हैं। आज भी जब ग्रामीण इलाकों में भूत कोला का आयोजन होता है, तो पूरा गांव उसमें भाग लेता है और अपने देवता या रक्षक से आशीर्वाद प्राप्त करता है।
अनुष्ठान और तैयारी का रोमांच
भूत कोला का आयोजन रात भर चलता है और इसकी तैयारी कई दिन पहले शुरू हो जाती है। सबसे पहले गांव के लोग तय करते हैं कि किस दिन और किस स्थान पर आयोजन होगा। स्थान को विशेष रूप से शुद्ध किया जाता है और वहां लकड़ी, नारियल के पत्तों और फूलों से सजावट की जाती है। मंच तैयार होने के बाद कलाकारों की भूमिका निर्धारित होती है। कलाकार, जिन्हें “भूत कोलार” कहा जाता है, विशेष परिवारों से आते हैं जिनके पूर्वज कई पीढ़ियों से इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। उनका शरीर इस अनुष्ठान के लिए तैयार किया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण है मेकअप और वेशभूषा। चेहरे पर चटख लाल, पीले और काले रंगों का मेकअप किया जाता है, जो रहस्य और शक्ति का प्रतीक है।
ऐसा रूप बनाते हैं की देखकर आप भी डर जाएं
विशाल मुकुट, लंबे गहने, घुंघरू और नारियल के पत्तों से बनी पोशाक पहनकर कलाकार पूरी तरह से अलौकिक रूप में बदल जाता है। अनुष्ठान की शुरुआत ढोल-नगाड़ों और शंखनाद से होती है। पूरा वातावरण गूंजने लगता है और लोगों के बीच रोमांच और श्रद्धा का माहौल बन जाता है। फिर कलाकार नृत्य करना शुरू करता है। उसका नृत्य धीमे-धीमे तेज़ होता जाता है और लोग मानते हैं कि इस क्षण कलाकार के शरीर में देवता या आत्मा का वास हो जाता है। इसके बाद पूजा होती है। देवता को नारियल, फल, धूप और दीप अर्पित किए जाते हैं। फिर कलाकार, जो अब देवता का रूप धारण कर चुका है, गांव के लोगों से संवाद करता है। लोग अपनी परेशानियां बताते हैं और देवता से समाधान प्राप्त करते हैं। यह दृश्य किसी नाटकीय मंचन से कहीं अधिक होता है क्योंकि यह लोगों की आस्था, डर और उम्मीद का अद्भुत समां बंधता है।

नृत्य, संगीत और रहस्यमय माहौल
भूत कोला की सबसे बड़ी विशेषता उसका नृत्य और संगीत ही है। जैसे ही ढोल, ताशा, चेंडे और नगाड़े बजते हैं, पूरा माहौल रहस्य और शक्ति से भर जाता है। लय इतनी तीव्र होती है कि दर्शकों के दिल की धड़कनें भी उसके साथ ताल मिलाने लगती हैं। इस बीच कलाकार देवता के रूप में मंच पर आते हैं और उनके हर हावभाव में शक्ति और आकर्षण झलकता है। नृत्य के दौरान कलाकार के पैरों की थाप, हाथों की मुद्राएं और आंखों का तेज़ भाव सब मिलकर एक अलौकिक अनुभव देते हैं। दर्शकों को ऐसा लगता है जैसे वे किसी सामान्य इंसान को नहीं बल्कि सीधे देवता को देख रहे हों।
क्या इंसान में देवता आ सकते हैं?
कलाकार की गति कभी धीमी, कभी बहुत तेज होती है। कभी वे जमीन पर झुक जाते हैं, तो कभी अचानक हवा में छलांग लगा देते हैं। संगीत और गीत भी इस नृत्य का अहम हिस्सा हैं। गायक “पद्दना” नामक लोककथाएं गाते हैं, जिनमें देवताओं, आत्माओं और वीरों की कहानियां होती हैं। ये कहानियां न केवल मनोरंजन करती हैं बल्कि इतिहास, संस्कृति और नैतिक मूल्यों को भी लोगों तक पहुंचाती हैं। जब गायक गाता है और ढोल की थाप पर नृत्य होता है तो दर्शक अलग दुनिया में पहुंच जाते हैं। रात का अंधेरा, मशालों की रोशनी, ढोल की आवाज़ और देवता का रूप धारण किए कलाकार यह सब मिलकर ऐसा रंग रचते हैं जिसे शब्दों में पूरी तरह बयान करना मुश्किल है। यही कारण है कि भूत कोला केवल एक नृत्य नहीं बल्कि एक अनोखा अनुभव बन जाता है।
भूत कोला की सामाजिक और सांस्कृतिक अहमियत
भूत कोला केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण समाज की धड़कन है। तटीय कर्नाटक के लोग मानते हैं कि उनके गांव की सुरक्षा, समृद्धि और खुशहाली सीधे-सीधे भूत कोला से जुड़ी है। जब देवता गांव में आते हैं तो लोग उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानते हैं। इस परंपरा का सामाजिक महत्व भी बहुत ही गहरा माना जाता है। आयोजन के दौरान पूरा गांव एक साथ इकट्ठा होता है। अमीर-गरीब, उच्च जाति-निम्न जाति का भेद मिट जाता है और सब देवता के सामने समान हो जाते हैं। देवता के वेश में आया कलाकार सभी की बातें सुनता है और निष्पक्ष रूप से निर्णय सुनाता है। इस तरह भूत कोला गांव के लिए न्यायपालिका की तरह काम करता है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह परंपरा बेहद अनोखी है। इसमें लोकगीत, कथाएं, नृत्य और रंगमंच सब कुछ शामिल है। यही कारण है कि यह कला केवल धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी है। बच्चे, युवा और बूढ़े सभी इसमें भाग लेते हैं और इस तरह यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहती है।
कांतारा मूवी ने दिखाए इस परंपरा के रहस्य
भूत कोला का एक और महत्व यह है कि यह पर्यावरण और प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। लोग मानते हैं कि जंगल, नदियां और खेतों की आत्माएं ही उनके जीवन की रक्षा करती हैं। इसलिए वे भूत कोला के माध्यम से इन शक्तियों का सम्मान करते हैं। यह सोच पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देती है। आज के समय में जब समाज आधुनिक हो गया है, तब भी भूत कोला ग्रामीण इलाकों में उसी श्रद्धा के साथ आयोजित होता है। यह बताता है कि परंपराएं चाहे कितनी भी पुरानी हों, उनका महत्व कभी कम नहीं होता। यह सब आप देखना चाहते हैं तो कांतारा नाम की फिल्म में इसकी पूरी कहानी गढ़ी गई है। आप देख सकते हैं और इस फिल्म के जरिए आप पूरी परंपरा को समझ सकते हैं।

क्या बदलते दौर में समाप्त हो सकती है भूत कोला की परंपरा?
भूत कोला की परंपरा आज भी जीवित है, लेकिन बदलते समय के साथ इसमें कुछ चुनौतियां और बदलाव भी आ गए हैं। एक ओर लोग इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान मानते हैं, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण और आधुनिकता के कारण युवाओं में इसका आकर्षण कम हो रहा है। फिर भी फिल्मों और डॉक्यूमेंट्रीज़ ने इस परंपरा को वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया है। जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, हाल ही में आई कन्नड़ फिल्म “कांतारा” ने भूत कोला को पूरी दुनिया के सामने ला खड़ा किया। इस फिल्म के माध्यम से लोगों को न केवल इस नृत्य की झलक मिली बल्कि इसके रहस्य, आस्था और शक्ति का अनुभव भी हुआ। परिणामस्वरूप आज भूत कोला केवल कर्नाटक तक सीमित नहीं बल्कि भारत और विदेशों में भी चर्चित हो चुका है।
सरकार और सांस्कृतिक संस्थाएं भी इस परंपरा को संरक्षित करने की कोशिश कर रही हैं। पर्यटन विभाग भूत कोला को लोक संस्कृति के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। कई जगह विदेशी पर्यटक भी इसे देखने आते हैं और मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। भविष्य में भूत कोला तभी जीवित रह पाएगा जब नई पीढ़ी इसे अपनाएगी। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों और युवाओं को इसकी महत्ता समझाई जाए। अगर इसे केवल अंधविश्वास मानकर नकार दिया गया तो यह अद्भुत परंपरा धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी।
लेकिन आज जब भी तटीय कर्नाटक के किसी गांव में रात ढलते ही ढोल बजते हैं और कलाकार देवता का रूप धारण कर नृत्य करता है, तो यह ज़ाहिर होता है कि भूत कोला अब भी जीवित है और आने वाली पीढ़ियों को अपनी रहस्यमय और रोमांचक अंदाज से जोड़ता है।









