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कालकाजी मंदिर: आस्था और आध्यात्मिकता का संगम

कालकाजी मंदिर- दिल्ली के दक्षिण में स्थित एक ऐसी पवित्र जगह- जहाँ आप आस्था और श्रद्धा भाव के साथ अध्यात्म को भी महसूस कर सकते हैं। यह प्राचीन मंदिर, दिल्ली के नेहरू प्लेस इलाके में स्थित है, माँ काली या माँ कालका के शक्ति रूप को समर्पित है। आइए, इस पवित्र मंदिर की कहानी और कुछ ऐसे तथ्यों के बारे में जानते हैं जिनके बारे में अधिकतर लोगों को शायद ही पता हो।(Kalkaji Mandir)

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर का इतिहास और महत्व

मान्यता है कि यह मंदिर सत् युग से स्वतः स्थापित है और ज्ञातव्य इतिहास मे इसका पुनर्निर्माण आधिकारिक रूप से 1764 ईस्वी में हुआ था। यह मंदिर माँ काली के उस जागृत रूप का है, जिन्होंने रक्तबीज नामक राक्षस का वध किया था। कथा के अनुसार, जब असुरों का अत्याचार बढ़ने लगा, तो सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने उन्हें माँ पार्वती की पूजा करने की सलाह दी। माँ पार्वती ने इस स्थान पर आकर असुरों का संहार किया और यहीं अपना निवास बनाया।

महाभारत के समय भी इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि पांडवों ने  यहाँ प्रार्थना की थी और माँ काली से हर चुनौती को पार करने की शक्ति मांगी थी।  यह स्थान “सिद्ध पीठ” के रूप में प्रसिद्ध है, जहाँ भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर की विशेषताएँ

इस मंदिर की वास्तुकला बेहद अनोखी है। केंद्रीय कक्ष 12 भुजाओं वाला है, जो 12 महीनों का प्रतीक है। मंदिर के 36 मेहराबदार प्रवेश द्वार और संगमरमर से बने पिरामिडनुमा मीनारें इसकी सुंदरता और दिव्यता को बढ़ाते हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर दो बलुआ पत्थर के शेरों की मूर्तियाँ स्थापित हैं, जो माँ काली की शक्ति और वीरता का प्रतीक हैं। मंदिर के अंदर एक केंद्रीय कक्ष है, जिसमें माँ कालका देवी का विग्रह स्थापित हैं। बरामदे के पास एक ऐतिहासिक हवन कुंड भी है, जो 300 साल पुराना है और आज भी यहाँ हवन किए जाते हैं।

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर के त्यौहार और नवरात्रि की रौनक

हर हिंदू त्योहार यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन नवरात्रि के दौरान यहाँ का माहौल अलग ही होता है। वसंत नवरात्रि (जो अप्रैल में होती है) और महानवरात्रि (जो अक्टूबर में होती है) के समय श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। मंदिर को 150 किलो ताजे फूलों से सजाया जाता है, जिनमें कई विदेशी फूल भी होते हैं। माँ के श्रृंगार को रोज़ाना दो बार बदला जाता है — सुबह और शाम के समय माँ के अलग-अलग रूपों के दर्शन किए जाते हैं।

कालकाजी मंदिर से जुड़े रोचक तथ्य

1. महाभारत से जुड़ा हुआ मंदिर

  इस मंदिर का उल्लेख महाभारत में मिलता है, जहाँ पांडवों ने अपनी जीत के लिए माँ से आशीर्वाद लिया था। 

2. औरंगज़ेब के समय का मंदिर

   मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने इस मंदिर के कुछ हिस्सों को तुड़वा दिया था, लेकिन 18वीं सदी में इसका पुनर्निर्माण हुआ। 

3. मुंडन संस्कार का पवित्र स्थान

   यहाँ कई लोग अपने बच्चों के मुंडन संस्कार के लिए आते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार, मुंडन एक ऐसे भार को हटाता है जो पिछले जन्म से जुड़ा हुआ होता है। 

4. सूर्य ग्रहण के समय भी खुला मंदिर

   जब ज़्यादातर मंदिर ग्रहण के समय बंद रहते हैं, कालकाजी मंदिर खुला रहता है और भक्त माँ के दर्शन कर सकते हैं। 

5. स्वयंभू मंदिर

   लोक कथाओं के अनुसार, माँ काली यहाँ स्वयं प्रकट हुई थीं और असुरों का वध करने के बाद इस स्थान को अपना घर बनाया। 

यहाँ हर मनोकामना पूरी होती है

मान्यता है कि यहाँ माँ कालका के दर्शन करने से हर मनोकामना पूरी होती है, इसीलिए इसे “मनोकामना सिद्ध पीठ” कहते हैं। चाहे आप अपनी व्यक्तिगत जीवन में चुनौतियों का सामना कर रहे हों या एक आध्यात्मिक अनुभव की तलाश में हों, कालकाजी मंदिर एक ऐसी जगह है, जिसे अवश्य देखना चाहिए। दिल्ली के दिल में बसा यह पवित्र मंदिर, आस्था और इतिहास का अद्भुत संगम है। क्या आपने कालकाजी मंदिर के दर्शन किए हैं? अगर नहीं, तो अपनी अगली दिल्ली यात्रा में इस दिव्य स्थान को ज़रूर शामिल करें!

रक्तबीज ने वरदान प्राप्त किया था कि, जहां-जहां उसके रक्त की बूंदे गिरेंगी, उससे उसी की तरह एक नया रक्तबीज पैदा हो जाएगा जब मां दुर्गा और रक्तबीज के बीच युद्ध हुआ. मां दुर्गा जैसे ही उसके अंगों को काटने लगी तो उसके रक्त से नए दैत्य रक्तबीज का जन्म होने लगा. इस तरह से रक्बीज दैत्य की सेना खड़ी हो गई. आखिरकार मां ने देवी चंडिका को आदेश दिया कि, जब वह रक्तबीज पर प्रहार करे तो वह उसका रक्त पी जाए. इससे नया रक्तबीज उत्पन्न नहीं होगा. इसके बाद मां पार्वती ने भद्रकाली कालिका का रूप धारण किया.  मां काली के इस रूप को समातन धर्म में अन्य सभी देवी-देवताओं में विकराल माना जाता है.

जहां-जहां रक्तबीज का रक्त गिरता मां उसे पी जाती और इससे नया दैत्य उत्पन्न नहीं हो पाता. कहा जाता है कि इस अवतार में मां का रूप बहुत विकराल हो गया था और उन्होंने कई राक्षसों को निगल भी लिया था. इस तरह से मां दुर्गा ने रक्तबीज का संहार किया.मां जब अपने कालका धाम में आकर विराजमान हुई तो उन्होंने अत्यंत  सुंदर रूप धारण कर लिया ताकि उनके भक्त और उनके संतानों पर उनका स्नेहाशीष बरसता रहे.

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पुष्कर मेला-दुनिया का सबसे बड़ा ऊँट व्यापार मेला

दोस्तों, इन दिनों देश-विदेश सब जगह पुष्कर मेले की धूम है. साल भर सैलानी इस मेले के आयोजन का इंतज़ार करते हैं. आज इस ब्लॉग में हम दुनिया भर में यह मेला यहाँ के ऊँटों के लिए इतना प्रसिद्ध क्यों है, इसके बारे में विस्तार से जानेंगे. (Pushkar Mela)

पुष्कर मेला Pushkar Mela

दुनिया का सबसे बड़ा ऊँट व्यापार मेला

पुष्कर मेला Pushkar Mela

मिस ऊँट प्रतियोगिता होती है मेले का प्रमुख आकर्षण -पुष्कर मेला में ऊँटों को रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाया जाता है, और उनके साथ पारंपरिक राजस्थान संगीत और नृत्य भी होते हैं। एक विशेष प्रतियोगिता में ऊँटों को सजाकर विभिन्न कला रूपों का प्रदर्शन किया जाता है। ऊँटों के लिए नृत्य प्रतियोगिता भी आयोजित होती है, जहाँ ऊँट विभिन्न करतब दिखाते हैं, जैसे की ऊँट की दौड़, ऊँट का नृत्य, और मिस ऊँट प्रतियोगिता। मिस ऊँट प्रतियोगिता बहुत ही आकर्षक होती है और दर्शक इस प्रतियोगिता का खूब आनंद उठाते हैं।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

इसके अलावा यहाँ मेले के दौरान देसी-विदेशी पर्यटकों के लिए क्रिकेट मैच, फुटबाल, रस्साकसी, सतोलिया और कबड्‌डी मैच का आयोजन होता है. ऊंट-घोड़ों की सजावट, नृत्य आदि की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं, सैलानियों के लिए मूंछ, टरबन, दुल्हा-दुल्हन बनो, रंगोली, मांडना जैसी कई प्रतियोगिताएं भी मेले का हिस्सा होती हैं. जिससे यहाँ आने वाले सैलानियों को खूब मस्ती और मनोरंजन करने को मिलता है .

यहाँ पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, सुवेनियर, हथकरघा वस्त्र, और आभूषण की दुकानें भी लगती हैं, जहां पर्यटक राजस्थानी कला और हस्तशिल्प का आनंद ले सकते हैं।

पुष्कर मेला  Pushkar Mela

पुष्कर मेले का इतिहास भी है खास

पुष्कर मेला का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसे ब्रह्मा जी से जुड़ी धार्मिक परंपराओं से जोड़ा जाता है। माना जाता है कि पुष्कर झील का निर्माण ब्रह्मा जी ने स्वयं किया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, पुष्कर वह स्थान है जहाँ भगवान ब्रह्मा ने अपनी पत्नी सावित्री के साथ यज्ञ किया था। यह स्थान अत्यंत पवित्र माना जाता है और हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। प्राचीन काल में भी, कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) में आयोजित होने वाला यह मेला एक धार्मिक और व्यापारिक आयोजन था। इस समय भारत के विभिन्न हिस्सों से लोग यहाँ आकर स्नान करते थे और पूजा अर्चना करते थे। धीरे-धीरे इस धार्मिक मेले में व्यापारिक गतिविधियाँ भी जुड़ने लगीं, विशेषकर पशु व्यापार, जैसे ऊंट, घोड़े, बैल आदि की खरीद-फरोख्त।

मेला कब होता है

पुष्कर मेला कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) में आयोजित होता है। यह मेला आमतौर पर पांच दिनों तक चलता है, लेकिन कभी-कभी इसकी अवधि और भी बढ़ सकती है। मेला कार्तिक पूर्णिमा के आसपास अपने चरम पर होता है, जब बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक पुष्कर आते हैं। आधुनिक पुष्कर मेला अब एक सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है, जिसमें ऊंटों की दौड़, पारंपरिक संगीत और नृत्य, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, और विभिन्न प्रकार के प्रतियोगिताएँ होती हैं। यहाँ स्थानीय राजस्थानी कला, संस्कृति और परंपराओं को भी प्रदर्शित किया जाता है।

पुष्कर झील

पुष्कर मेला और पुष्कर झील दोनों का गहरा संबंध है। मेले का मुख्य आकर्षण पुष्कर झील में पवित्र स्नान और पूजा-अर्चना होती है, जो श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखता है। मेले के दौरान, विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के दिन, लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं और झील में स्नान करने के बाद पूजा करते हैं।

पुष्कर झील (Pushkar Lake) एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल है और इसे राजस्थान की पवित्र झील के रूप में जाना जाता है। यह झील ब्रह्मा जी के साथ जुड़ी हुई है, और हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह झील विशेष रूप से पवित्र है। पुष्कर झील के बारे में मान्यता है कि यह ब्रह्मा जी द्वारा बनाई गई थी। किंवदंती के अनुसार, ब्रह्मा जी ने इस झील में स्नान किया और यहाँ पूजा अर्चना की। इसलिए यह झील हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। माना जाता है कि जो भी व्यक्ति पुष्कर झील में स्नान करता है, उसके पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखों श्रद्धालु यहाँ स्नान करने आते हैं, और उस दिन विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन होता है।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

पुष्कर झील के चारों ओर 52 घाट (ghats) हैं, जिन पर श्रद्धालु स्नान करते हैं और पूजा करते हैं। यह घाट प्राचीन वास्तुकला का उदाहरण हैं और यहाँ पर धार्मिक अनुष्ठान और संस्कृतियाँ होती हैं। घाटों पर होने वाली धार्मिक क्रियाएँ और पुजारियों द्वारा की जाने वाली पूजा आमतौर पर बहुत ही भावनात्मक और आध्यात्मिक होती हैं। पुष्कर मेला के दौरान, खासकर कार्तिक पूर्णिमा के समय, हर साल लाखों श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करते हैं। यह समय विशेष रूप से धार्मिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन को पवित्र स्नान और ब्रह्मा जी की पूजा के लिए सबसे उत्तम समय माना जाता है। पुष्कर झील न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका प्राकृतिक सौंदर्य भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह झील सूर्योदय और सूर्यास्त के समय विशेष रूप से सुंदर दिखाई देती है। झील के किनारे सुंदर मंदिर और घाट स्थित हैं, जो इसे एक शांतिपूर्ण और आकर्षक स्थल बनाते हैं।

टैंट सिटी और कैम्पिंग है इस मेले की जान

पुष्कर मेला Pushkar Mela

पुष्कर मेला के दौरान टैंट सिटी का आयोजन भी किया जाता है, जहाँ पर्यटकों को ट्रेंडी और आरामदायक टैंट आवास की सुविधा मिलती है। यहाँ आने वाले सैलानियों के लिए यह एक अद्वितीय अनुभव होता है, जो शहर की हलचल से दूर प्राकृतिक वातावरण का आनंद लेने का मौका देता है। टैंट सिटी में आपको होटल जैसी सुविधाएं मिलती हैं जैसे कि बिस्तर, टॉयलेट, गर्म पानी, और कभी-कभी तो खास डाइनिंग सुविधा भी होती है। ये टैंट विशेष रूप से उन पर्यटकों के लिए आदर्श होते हैं, जो मेले की भीड़-भाड़ में भी एक अनोखा और कनेक्टेड अनुभव चाहें। टैंट सिटी में प्रायः रात्रि में आग जलाने का आयोजन(बॉन फायर), लोक नृत्य (कालबेलिया और घूमर), और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं, जो मेले की जीवंतता में और इजाफा करते हैं।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

15 नवंबर को है कार्तिक पूर्णिमा महास्नान-आप की जानकारी के लिए बता दें इस साल 9 नवंबर को झंडा चढ़ने के साथ धार्मिक मेले की विधिवत शुरूआत हो गई है. इसी दिन एकादशी और पंचतीर्थ स्नान साधु संतो के साथ होता है, जबकि 15 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा के दिन महास्नान का दिन निश्चित हुआ है. इस धार्मिक मेले में देशभर से 13 अखाड़ों के साधु-संत जुटेंगे. साथ देसी सैलानियों का भी सर्वाधिक आगमन इसी दौरान होगा. साधु संतों के स्नान से पहले पुष्कर तीर्थ नगरी के विभिन्न मार्गो से साधु संतों की धार्मिक यात्राएं भी निकाली जाती हैं.


पुष्कर मेला कैसे जाएं

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कुंभ मेला:  जानिए दुनिया के सबसे बड़े मेले के बारे में

इस मेले का आयोजन चार प्रमुख पवित्र स्थानों – प्रयागराज (इलाहाबाद): यहाँ गंगा, जमुना, और सरस्वती नदियों का संगम होता है। हरिद्वार: यहाँ गंगा नदी का प्रवाह होता है। उज्जैन: यहाँ शिप्रा नदी के तट पर महाकुंभ होता है। नासिक: यहाँ गोदावरी नदी के तट पर महाकुंभ आयोजित होता है। इन चार स्थानों को ‘कुंभ’ का आयोजन स्थल माना जाता है। और जब ये चारों स्थान एक साथ महाकुंभ के आयोजन में शामिल होते हैं, तो इसे महाकुंभ कहा जाता है।

महाकुंभ का आयोजन एक निश्चित कालखंड में होता है, जो ज्योतिषीय गणना पर आधारित होता है। प्रत्येक कुंभ मेला लगभग तीन महीने तक चलता है, लेकिन सबसे बड़ी भीड़ विशेष स्नान दिवसों पर देखी जाती है। ये विशेष दिन माघ पूर्णिमा, शिवरात्रि, बसेरा स्नान, और सिंहस्थ के दिन होते हैं, जब खास अवसरों पर लाखों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।

कुंभ मेले की पौराणिक कथा

कुंभ मेले की शुरुआत पौराणिक कथा से होती है। कहा जाता है कि जब देवताओं और असुरों के बीच अमृत के लिए समुद्र मंथन हो रहा था, तो अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिरीं – प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इसलिए ये स्थान पवित्र माने जाते हैं और यहाँ हर 12 साल में कुंभ मेले का आयोजन होता है। मान्यता है कि इस अमृत की बूंदों से इन स्थलों पर स्नान करने से आत्मा की शुद्धि होती है और पापों का नाश होता है। कुंभ मेला न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का दर्पण भी है, जिसमें एक साथ आकर समाज के हर वर्ग के लोग समान रूप से भक्ति और श्रद्धा से भाग लेते हैं।

Kumbh Mela

  कुंभ मेले का महत्व

कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है, जहां भक्त, साधु-संत, नागा साधु और संत महात्मा पवित्र स्नान के लिए आते हैं। कुंभ मेले में देश-विदेश से लोग आते हैं और एक असीमित आस्था का अनुभव करते हैं। नागा साधु, जो मेला के प्रमुख आकर्षण होते हैं, अपने तपस्या, योग और साधना के कारण भक्तों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक होते हैं। वे हिमालय की कठिन तपस्या करने वाले साधु होते हैं, जो सिर्फ कुंभ मेले में दर्शन देते हैं और उनका दिखना एक दैवीय अनुभव के समान होता है। इस मेले में विभिन्न अखाड़ों के साधु संत अपने-अपने पंथों का प्रतिनिधित्व करते हैं और मेले में आध्यात्मिकता, योग, ध्यान और धार्मिक प्रवचनों के माध्यम से भक्तों का मार्गदर्शन  करते हैं।

 कुंभ मेले में स्नान का महत्व

कुंभ मेले में पवित्र स्नान का विशेष महत्व है। मेले के दौरान गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम में स्नान करना अत्यंत पवित्र माना जाता है। मान्यता है कि इस पवित्र स्नान से व्यक्ति के पाप मिट जाते हैं और उसे मोक्ष प्राप्ति का अवसर मिलता है। इस अद्वितीय स्नान का अवसर विशेष तिथियों पर होता है, जिसे “शाही स्नान” कहा जाता है। शाही स्नान के दिन नागा साधु और विभिन्न अखाड़ों के संत सबसे पहले स्नान करते हैं, इसके बाद आम भक्तों को स्नान का अवसर मिलता है। स्नान का यह अनुभव न केवल धार्मिक होता है, बल्कि यह भक्तों के लिए आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति का प्रतीक है। कुंभ मेला में विशेष तिथियों पर स्नान करने के लिए भक्त कई दिन पहले से ही यात्रा की योजना बनाते हैं और हजारों किलोमीटर की यात्रा कर मेले में पहुंचते हैं।

Kumbh Mela
mahakumbh

 कुंभ मेले का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

कुंभ मेला न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव भी है, जो सभी जाति, वर्ग और समुदायों को एक ही मंच पर एकत्र करता है। इस मेले में साधु-संतों के अलावा आम लोग, व्यापारी, शिल्पकार और सांस्कृतिक कलाकार भी भाग लेते हैं। विभिन्न राज्यों के लोग अपनी कला और संस्कृति को प्रस्तुत करते हैं। इस मेले में लगने वाले विभिन्न पंडालों में धार्मिक प्रवचन, योग शिविर, ध्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जो भक्तों को आध्यात्मिक शांति और आंतरिक शक्ति प्रदान करते हैं। इसके अलावा, कुंभ मेला व्यापार का भी एक प्रमुख केंद्र होता है, जहां विभिन्न वस्त्र, आभूषण, धार्मिक पुस्तकें, और अन्य सामग्री की बिक्री होती है।  यहाँ व्यापारी और कारीगर अपनी विशेष कलाकृतियों और शिल्पकारियों को बेचने के लिए आते हैं। इस आयोजन में लोगों को विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प और स्थानीय कलाओं को देखने और खरीदने का अवसर मिलता है।

 कुंभ मेले में यात्रा के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें

1. समय का चयन– कुंभ मेला जनवरी से मार्च तक चलता है। विशेष तिथियों पर पवित्र स्नान के दिन सबसे अधिक भीड़ होती है, इसलिए यात्रा की योजना इसी के अनुसार बनानी चाहिए।

2. आवास की व्यवस्था: कुंभ मेले के दौरान अस्थाई तंबुओं में रहने का विशेष अनुभव मिलता है, जो साधारण होटल और गेस्टहाउस से अलग होता है। हालांकि, मेले में लोगों की भीड़ बहुत होती है, इसलिए आवास की अग्रिम बुकिंग कर लेना सबसे बेहतर होता है।

3. भोजन और स्थानीय व्यंजन: मेले में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट और पारंपरिक भारतीय स्ट्रीट फूड मिलते हैं। जलेबी, चाट, पूरी-सब्जी जैसे व्यंजन तीर्थयात्रियों के बीच बहुत लोकप्रिय होते हैं। कुंभ मेले के दौरान स्थानीय भोजन का अनुभव भी एक अद्भुत आनंद देता है।

4. स्वास्थ्य और सुरक्षा व्यवस्था: कुंभ मेले में सरकार द्वारा सुरक्षा का खास ध्यान रखा जाता है। पूरे मेले में पुलिस, स्वयंसेवक और स्वास्थ्य शिविर उपलब्ध रहते हैं, ताकि किसी भी आकस्मिक स्थिति में सहायता मिल सके।

5. मुख्य स्नान तिथियाँ: यदि आप कुंभ मेले में विशेष स्नान के दिन जाना चाहते हैं, तो मुख्य स्नान तिथियों की जानकारी पहले से प्राप्त कर लें। इन दिनों में साधु-संतों का जुलूस और स्नान बहुत आकर्षक होता है, जिसे देखकर आपको मेले का पूरा अनुभव प्राप्त होगा।

 कुंभ मेले के दर्शनीय स्थल और अनुभव

कुंभ मेला केवल धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विविधता का भी प्रतीक है। यहाँ साधु-संतों के साथ-साथ नागा साधु और अन्य प्रकार के साधु-संत अपने परिधान और साधना की परंपराओं के साथ मेले में आते हैं। मेले के दौरान योग और ध्यान के कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, जो मानसिक शांति और आंतरिक संतुलन प्राप्त करने का एक अनोखा अवसर प्रदान करते हैं। कुंभ मेले में आने वाले लोगों को यह भी देखने का अवसर मिलता है कि कैसे विभिन्न अखाड़े, जो प्राचीन हिंदू परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, यहाँ एकत्र होते हैं। यह मेला केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मानवता की एकता को दर्शाता है। यहाँ आकर आप भारतीय समाज की विविधता, सहिष्णुता और एकता को महसूस कर सकते हैं। यूनेस्को ने कुंभ मेले को अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वर्णित किया है। अतः हम समझ सकते हैं कि महाकुंभ मेला सांस्कृतिक रूप से कितनी उत्कृष्टता को समेटे हुए है।

2025 में महाकुंभ– उत्तर प्रदेश के प्रयागराग में 13 जनवरी 2025 से महाकुंभ की शुरुआत होगी और इस मेले के दौरान देश विदेश से लाखों लोग पवित्र स्नान और अद्वितीय आध्यात्मिक का अनुभव कर सकेंगे.

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छठ पूजा: जानिए आस्था और समर्पण के लोक पर्व के बारे में

छठ की शुरुआत: नहाय-खाय की पवित्रता से होती है

खरना: छठ का दूसरा और महत्वपूर्ण दिन

दूसरा दिन, जिसे खरनाके नाम से जाना जाता है, पर्व का सबसे कठिन और विशेष दिन माना जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं और शाम को सूर्यास्त के बाद खीर, चावल की रोटी और केला का प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह प्रसाद शुद्धता और भक्ति का प्रतीक होता है और इसमें परिवार सदस्य भी शामिल होते हैं। खरना की रात व्रती निर्जल रहते हैं और अगली सुबह तक बिना कुछ खाए-पीए रहते हैं। यह व्रत सिर्फ आस्था नहीं, बल्कि आत्मसंयम और तपस्या का प्रतीक है, जो हमें जीवन में अनुशासन और त्याग का महत्व सिखाता है।

संध्या अर्घ्य: डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा

तीसरे दिन की शाम को संध्या अर्घ्य का विधान होता है। इस दिन व्रती अपने परिवार और समाज के साथ नदी या तालाब के किनारे जाकर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। सूर्यास्त का यह समय जीवन में उतार-चढ़ाव और संघर्षों को अपनाने की प्रेरणा देता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देना यह सिखाता है कि जीवन में सुख-दुःख दोनों को अपनाना चाहिए। यहाँ पर श्रद्धालु एक-दूसरे को प्रसाद बाँटते हैं और अपने रिश्तों को सशक्त बनाते हैं। संध्या अर्घ्य का यह अनुष्ठान सिखाता है कि समर्पण और विनम्रता ही सच्ची शक्ति है।

Chhath Puja

उषा अर्घ्य: उगते सूर्य की आराधना

Chhath Puja five colors of travel

छठ और पौराणिक मान्यताएं

हमारी पौराणिक कहानियों और मान्यताओं के अनुसार, सबसे पहले छठ त्रेता युग में देवी सीता ने किया था। कहते हैं प्रभु श्रीराम ने सूर्य नारायण देव की आराधना की थी। इसके अलावा छठी मैया की पूजा से जुड़ी एक और कहानी राजा प्रियंवद से भी जुडी है, जिन्होंने सबसे पहले छठी मैया की आराधना की थी। इस लोक प्रिय छठ महापर्व पर माँ अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य के लिए सूर्य देव और छठी मैया की पूजा-अर्चना करती है। गौर करने लायक बात यह है इस व्रत के दौरान महिलाएं 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं। शायद यही वजह है कि इस व्रत को देश के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है।

Chhath Puja

छठ का प्रसाद: शुद्धता और आस्था का प्रतीक

Chhath Puja

छठ: समर्पण, आस्था और परंपरा का प्रतीक

छठ पूजा
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The significance of Govardhan: A spiritual journey rooted in devotion

In this blog, we will examine the past and understand the mysteries of the Govardhan Hill, its history, myth, and meaning along with what it has always created in the hearts of a billion people.

The story of Govardhan and Lord Krishna

The story of Govardhan is intertwined with the myth of Lord Krishna, the 8th Avatar of Lord Vishnu who is the greatest God in Hinduism. It is said that in his childhood when Krishna was in Vrindavan, he saw the villagers getting ready to pay their respects to Indra – the God of Rain, in order to receive rains for their crops.

However, Krishna was not okay with this. He reasoned that there was no need to worship Indra and instead let ‘Govardhan’ the mountain sit down for worship since it was providing the villagers with fresh grass as well as fertile land instead of bringing sacrifices to idols. The hill was the very personification of nature, which nourished the people living there.

The making of Annakut shows the richness and fertility and the items on the platter are then offered as prasad to the believers. Many temples throughout the nation organize a lot of the food to be offered to Krishna, with the intention of serving it to people in the community and thus ethics of charity and social togetherness is illustrated. The commemoration is not only focused on performing the religious practices but it is part of the very practices focused on sustainability and eco-friendliness. The occasions are marked with very extravagant celebrations in many temples such as the Banke Bihari Temple that is found in Vrindavan, where the singing, dancing, and devotion of the people can be seen.

Govardhan Parikrama

Significance of Govardhan

The Govardhan Parikrama or the circumambulation of the hill is one of the primary ways of showing reverence to, love for and devotion to the Govardhan. Every year, thousands of devotees make this circumambulation of 21 kilometres around the hill, as a form of faith, austerity and purification of the soul.

The pilgrimage in question is not only a physical one but a deeply meditative one as well. While walking barefoot on the course, devotees recite prayers and sing devotional bhajans (songs); they bathe themselves in spirituality that helps them reach God. An inward gaze is released through many such journeys, self-imposed restrictions are erased and appreciation for Krishna’s care and Mother Nature in all its forms is vocalize

The route features many halts such as Radha Kund and Shyam Kund, the sacred ponds of Radha and Krishna, the Danghati Temple, where devotees worship Lord Krishna who lifted the holy mountain of Govardhan. Devotees usually believe that intenTionally or with unblemished heart, if Parikrama is performed, prayer will be answered, sins will be washed away, richness will be attained and ultimate salvation will be realized.

 The Significance and Teachings Associated with Govardhan

The narrative regarding Govardhan is not merely a story of fantasy that is prevalent in Hinduism. It has very strong and deep meaning and lessons which uplift the mankind even in this age.

1. Reverence for Nature

Govardhan Hill teaches us of the significance of nature and ecology. Krishna not only lifted the hill to shield his people but also preached that humanity must love and honor nature as it is the mother of all. This lesson is of utmost importance in the twenty-first century considering the ecological issues the planet is undergoing. In the case of Govardhan Puja, which mostly involves people giving food prepared with harvested grains and other foods, this worship reminds of the bounty of the soil and the need to take care of nature.

2. Humility and the Power of Faith

Similarly, the hill that Krishna lifted does signify faith in humility, which is quite powerful. The villagers braved the anger of Indra and were not aided by cleverness, strength or any such thing, but by Krishna’s loving and compassionate resolve. It is a lesson that there is more force in true devotion and respect for what is sacred than there is in any empowerment of the ego.

3. Collective Unity and Devotion

The story of the Govardhan mission is a case of united faith. The people of Vrindavan were devoted to Krishna and the worship of Mother Nature, and they faced the difficulties together. The same spirit of togetherness is present in the thousands of pilgrims who participate in the Govardhan Parikrama, lending to the idea that thanks to spirituality, it is possible to join many coupled families but leave none untouched.

Govardhan Puja: A Day of Thankfulness

In northern India, especially, Govardhan Puja is observed with great zeal a day after the festival of Diwali. Devotees sculpt the image of Mount Govardhan out of cow faeces and perform cow worship in this festival by placing grains, sweets and fruits around it. Annakut, or mountain of food, is the term used to refer to this act, which is in honouring Krishna’s instruction to give respect to the earth and everything that grows on it.

Significance of Govardhan

In northern India, especially, Govardhan Puja is observed with great zeal a day after the festival of Diwali. Devotees sculpt the image of Mount Govardhan out of cow faeces and perform cow worship in this festival by placing grains, sweets and fruits around it. Annakut, or mountain of food, is the term used to refer to this act, which is in honouring Krishna’s instruction to give respect to the earth and everything that grows on it.

To make Annakut thanks giving, joyous celebration dips considerably. Devotees are then given these offerings as prasad. In temples around the world, large quantities of food are made available to Krishna after which it is distributed to society in respect to the custom of oneness and charity.

 Govardhan in the Present Age

While the tohpur is sacred. it is also instrumental in saving forests and hence people should observe the tohpur only without intervention inside nature. A number of temples, in particular the noted Banke Bihari Mandir of Vrindavan, experience merry-making with the devotees singing and dancing or engaged in other activities.

Very few regions today can as still be understood as amenable to pilgrimage in the same way that Govardhan was not just a geophysical mass. With the rise of awareness to the substrate of nature, Govardhan lessons have come into the picture again. The philosophy of Krishna is said to be similar in nature to many ideas being advanced today to save the planet for future generations. All the stories depart from this and stress the principle that individuals and society as a whole are obliged to care for nature and avoid all forms of pollution.

Significance of Govardhan

The Govardhan Parikrama still survives and thrives amongst not only religious pilgrims but tourists and seekers from all over the globe who seek its spiritual nourishment. The tranquil environment along with the historical magnificence of Mathura-Vrindavan places lots of attraction in Govardhan for not only pilgrimage purposes but also for spiritual tourism.

Govardhan is a strong icon of devotion, modesty, and respect for nature in so many ways. The tale of Lord Krishna lifting the Govardhan Hill has always encouraged people, even from olden times, to maintain balance in both man and earth. Whether it is through the Govardhan Puja festival or the Parikrama pilgrimage, these devotees also draw from these values, looking for spiritual wholeness and for the grace of the God.

With the increasing fret regarding the environment, it is the lessons of Govardhan which act as a useful reminder that it is quite impossible to think of the wellbeing of the people without caring for the wellbeing of the environment in which they reside. In this context, Govardhan is much more than a place of worship—it is an active and impactful narrative of the elements of faith, society and ecology that has defied time.

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Culture Uttar Pradesh

Dev Deepawali 2024: A Divine Celebration in Varanasi

The significance of Deepawali in Varanasi

Dev Deepawali

Diwali is the Festival of Lights, where people pray to Goddess Lakshmi and offer their prayers with devotion on November 1, 2024. There is a reason behind the scheduled celebrations for Varanasi’s piecing up during Diwali. The ghats of the city which extend along the sacred river Ganga are dazzling as the devotees get together and illuminate the river banks with diyas to welcome back Lord Rama from his exile back in Ayodhya.

Kashi Vishwanath temple prepares sumptuous feasts and conducts elaborate aarti ceremonies. Different cuisine is provided on every street in rangoli, and sounds of bursting crackers can be heard, bringing together the divine and the chaotic.

‘After Diwali, Dev Deepawali’

Exactly fifteen days after Diwali on November 15, 2024 April, another fascinating festival takes place in Varanasi: Dev Deepawali. Hindu belief has it that this day signifies the return of the gods from heaven to the physical world in honor of the defeat of the demon, Tripurasura, by Lord Shiva. The celebration of this festival is within Kartik Purnima, which is the last day of the month of Kartik in the lunar calendar for Hindus and it is a very auspicious one.

The ghats of Varanasi, more especially the Dashashwamedh Ghat, is one place worth looking out for at this time. The river banks are filled with millions of oil lamps creating a river of flames on the surface of the water. This evening’s Ganga Aarti is quite impressive, and attracts lots of people, quite in thousands, with their chants and hymns resounding in the array of waters. Every single person in the city at that moment can be compared to an artist holding a paintbrush in hand and a white canvas which symbolizes the sky in which the divine dwells above the earthly city.

Dev Deepawali

 Varanasi: The Eternal City

Varanasi is not a city, but rather spiritual Benares, as is commonly referred to. Situated on the western banks of the Ganga, Varanasi is among the oldest inhabited cities in the history of mankind, Varanasi being in India. It has been a place of interest for Hindu institution as various temples and shrines ensure constant influx of faithful over the year.

Dev Deepawali

Describing Varanasi during Diwali or Dev Deepawali is not only about its decorative and expensive colors. The spirituality can be felt anywhere – be it the priests performing Ganga Aarti, devotees offering prayers in the waters or ghats filled with lit diyas. Places such of this in Benaras which erase your every other thought apart from abiding and experiencing its spirituality do exist.

Dev Deepawali

 Dev Deepawali 2024: A Visual and Spiritual Treat

If Dev Deepawali 2024 is celebrated so, then it is as if the region of Varanasi can be known in its most celestial state. The observance commences when devout Hindus deck the place with lights and lamps at twilight, but the real drama is when the moon makes its appearance. The reflection of the moon on the sacred river Ganga along with the flame of the lamps in the Gensburg, gives the view of the city an enchanting look.

Travelers and pilgrims alike can also participate in Ganga Mahotsav, a five-day festival scheduled by the Tourism Board of Uttar Pradesh concerning the best of Indian Classical music, dance, and handlooms. The festival, which also marks the end of the city’s Dev Deepawali celebrations, quite illustrates how the city handles both the age old practices and modern day festivities.

Planning Your Visit

In case you are inclined towards being in Varanasi during the Dev Deepawali celebrations in the year 2024, an early accommodation booking is a necessity. This is because the whole city turns out to be a base of full activity and all the hotels and guest houses are booked. Local tour companies like Shiva Kashi Travels provide well organized plans including local tours, boat rides during evening aarti on the Ganga and so on.

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Bazar Culture

धनतेरस-जानिए क्यों है खरीददारी का सबसे उत्तम समय

वैसे तो देश में पूरे साल तीज-त्योहारों का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन जैसे ही अक्टूबर का महीना दस्तक देता है, मानो उत्सवों की एक बहार सी आ जाती है। अक्टूबर की शुरुआत नवरात्रि से होती है और फिर इन खुशियों का कारवां महीनों चलता रहता है। फाइव कलर्स ऑफ़ ट्रेवल के इस ब्लॉग में हम बात करेंगे धनतेरस की, जिसे दीवाली से दो दिन पहले मनाया जाता है।

 1. क्या हैं धनतेरस के मायने ?

धनतेरस दो लफ्ज़ों से मिलकर बना है—धन यानी दौलत, और तेरस मतलब तेरहवीं तारीख़। यह दिन दीवाली के दो दिन पहले आता है और देवी लक्ष्मी की पूजा से जुड़ा होता है, जो धन और समृद्धि की मल्लिका मानी जाती हैं। इस दिन लोहे, चांदी, सोने या बरतनों की ख़रीदारी को बहुत मुबारक माना जाता है।

 2 . आयुर्वेद और धनतेरस का रिश्ता

 3 . धनतेरस दिवाली से दो दिन पहले क्यों मनाया जाता है?

पुरानी मान्यताओं के मुताबिक, समुद्र मंथन के चौदहवें दिन भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का प्याला लिए प्रकट हुए थे। चूंकि वे प्याला लेकर समुद्र से निकले थे, इसीलिए इस दिन बरतन ख़रीदना शुभ माना जाता है। भगवान धन्वंतरि के प्रकट होने के दो दिन बाद देवी लक्ष्मी भी समुद्र से निकली थीं, और इस वजह से दीवाली से दो दिन पहले धनतेरस का त्यौहार मनाया जाता है।

 4 . धनतेरस पर क्या चीज़ सबसे ज्यादा खरीदी जाती है?

हमारे देश के लोग अपनी तहज़ीब और धर्म में विशेष आस्था रखते हैं। धनतेरस के दिन लोहा, चांदी, सोना, या बरतन ख़रीदना बेहद शुभ माना जाता है। खासतौर पर पीतल, स्टील या चांदी के बरतन ख़रीदने का दस्तूर है, क्योंकि भगवान धन्वंतरि भी अमृत से भरा कलश लेकर प्रकट हुए थे। इस दिन घर में कोई भी नई चीज़ लाना घर में बरकत और खुशहाली लाता है। हिंदू धर्म ग्रंथों के मुताबिक, यह एक शुभ रिवाज़ है।

5 . भगवान धन्वंतरि और चिकित्सा विज्ञान

हमारे देश में हमेशा से यह माना गया है कि सेहत सबसे बड़ी दौलत है। इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के तौर पर मनाया जाता है। भगवान धन्वंतरि, जिन्हें भगवान विष्णु का अंश माना जाता है, उन्होंने चिकित्सा विज्ञान का परचम लहराया था। इस दिन घर के बाहर दीए जलाने का दस्तूर है, जो सुकून और लंबी उम्र का तोहफा देता है।

6 . देवी-देवताओं की पूजा का रिवाज

धनतेरस के दिन सिर्फ देवी लक्ष्मी और धन्वंतरि की पूजा नहीं होती, बल्कि धन वैभव के देवता कुबेर और यमराज की भी पूजा की जाती है। हर प्रार्थना के पीछे एक अलग कहानी है, लेकिन मकसद एक ही है—घर में सुकून, दौलत और सेहत का आना।

7 . धनतेरस की पौराणिक कहानी

एक बार यमराज ने अपने फरिश्तों से पूछा कि क्या कभी किसी इंसान की जान लेते वक्त तुम्हें तरस आया है? फरिश्तों ने जवाब दिया, “महाराज, हम तो बस आपके हुक्म का पालन करते हैं।” लेकिन फिर यमराज ने पूछा, “कभी किसी इंसान की जान लेते वक्त तुम्हारा दिल पसीजा है?” तब एक फरिश्ते ने कहा, “हां, एक बार ऐसा वाकया हुआ था।” फरिश्ते ने कहानी सुनाई कि एक बार राजा हेम के घर एक बेटे का जन्म हुआ। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि उसकी शादी के चार दिन बाद उसकी मौत हो जाएगी। राजा ने अपने बेटे को एक गुफा में ब्रह्मचारी के रूप में रखा, जहां कोई औरत उसकी परछाई तक न देख सके। लेकिन एक दिन राजा हंस की बेटी उस गुफा तक पहुंच गई और दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। शादी के चार दिन बाद वही हुआ जो ज्योतिषियों ने कहा था, उस बेटे की मौत हो गई। फरिश्ता कहता है कि उस नवविवाहिता के दर्द भरे विलाप को देखकर उनका दिल पिघल गया था। यह सुनने के बाद यमराज ने कहा, “यह तो तक़दीर का फैसला है।” लेकिन उन्होंने एक हल दिया कि जो लोग धनतेरस के दिन पूजा और दीपदान करते हैं, उन्हें अकाल मृत्यु से निजात मिलती है।

8. दीपदान की अहमियत: दिए जलाओ, घर में रोशनी और बरकत लाओ

इसलिए, धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि, माता लक्ष्मी, कुबेर और यमराज की प्रार्थना की जाती है, और दीपदान किया जाता है, ताकि घर में दौलत के साथ-साथ सेहत और लंबी उम्र का आशीर्वाद हासिल हो

 9 . धनतेरस और इकॉनमी का बूस्ट

धनतेरस के दिन खरीदारी का यह सिलसिला सिर्फ व्यक्तिगत समृद्धि तक सीमित नहीं है; यह हमारी अर्थव्यवस्था को भी बूस्ट करता है। जब लोग इस दिन सोने, चांदी और अन्य बहुमूल्य वस्तुओं की ख़रीदारी करते हैं, तो इससे बाजार में तेजी आती है। व्यापारियों के लिए यह एक सुनहरा अवसर होता है, और इससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं। इस प्रकार, धनतेरस न केवल व्यक्तिगत समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि हमारे समाज और अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण है। जब खरीदारी होती है, तो बाजार में हलचल बढ़ती है, जिससे व्यापारियों, कारीगरों और दुकानदारों का जीवन भी रोशन होता है। इस तरह, धनतेरस का यह त्यौहार हमें आर्थिक मजबूती की दिशा में भी एक कदम बढ़ाता है।

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Culture Gujrat Lifestyle

गरबा(Garba): स्त्री शक्ति का महापर्व और ज़िन्दगी का जश्न

गरबा की परंपरा और उद्भव
गरबा का उद्भव प्राचीन गुजरात से माना जाता है, जहाँ लोग इस नृत्य को अपनी संस्कृति का हिस्सा समझते थे। पहले के समय में गरबा सिर्फ स्त्री शक्ति और माँ दुर्गा की आराधना के रूप में किया जाता था। यह नृत्य माँ दुर्गा के चिन्हित प्रतिमा के चारों ओर गोल घूमते हुए किया जाता है, जो जीवन के चक्र को दर्शाता है। डांसर्स एक गोलाकार में नृत्य करते हैं, जो जीवन के अनंत चक्र को प्रतिबिंबित करता है, और धीरे-धीरे डांस की गति बढ़ती जाती है।

Garba

इस नृत्य का पूरा जो शब्द है “गर्भ दीप”, वह एक मिट्टी के मटके को दर्शाता है जिसमें एक दिया जलता रहता है, और यह दिया जीवन का प्रतीक होता है, जो माँ दुर्गा के आशीर्वाद के रूप में दिया गया है। इसलिए, गरबा स्त्री का जीवन देने का अधिकार और उसके गर्भ का सम्मान करता है। पहले के समय में, यह नृत्य लड़कियों के प्रथम मासिक धर्म चक्र को सेलिब्रेट करने के लिए किया जाता था, जो एक स्त्री के जीवन में एक नए अध्याय की शुरुआत होती थी। शादी के समय भी गरबा एक विशेष रूप में परफॉर्म किया जाता था

Garba

आज के समय में यह नृत्य नवरात्रि के दौरान माँ दुर्गा के नौ रूपों की आराधना में किया जाता है, जो हिंदू महीना आश्विन के दौरान आता है (सितंबर-अक्टूबर)। हर साल यह त्योहार भारत के कई शहरों में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। गुजरात के अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में भी इस नृत्य का प्रचलन काफी है। यह नृत्य दुनिया भर की हिंदू कम्यूनिटीज़ के बीच भी काफी पॉपुलर हो चुका है, जहाँ लोग अपनी संस्कृति को यह नृत्य के जरिए जीवंत रखते हैं।

गरबा की साज-सज्जा और नई परंपराएँ

Garba

गरबा के ट्रेडिशनल म्यूजिक में ढोल ढोलक और शहनाईका उपयोग होता था, जो डांसर्स को ताल देने का काम करते थे। लेकिन आजकल के मॉडर्न गरबा में सिंथेसाइज़र और हार्मोनिय का उपयोग भी होता है। मॉडर्न बीट्स के साथ यह नृत्य और भी ज़्यादा अपबीट और एनर्जेटिक बन गया है।

गरबा और फाल्गुनी पाठक का जादू
फाल्गुनी पाठक का नाम सुनते ही हर किसी के दिमाग में एक ही चीज़ आती है—गरबा के वाइब्रेंट गाने और उनका बेहतरीन म्यूजिक। उनके गाने हर गरबा नाइट का दिल होते हैं।”मैंने पायल है छनकाई” और “इंधना विनवा”जैसे गाने तो हर गरबा इवेंट का मस्ट-हैव बन चुके हैं। उनका म्यूजिक और उनकी सोलफुल आवाज़ लोगों को घंटों तक नाचने पर मजबूर कर देती है। फाल्गुनी ने गरबा को सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं रखा, बल्कि पूरे देश में उसकी पहचान बनाई है।

Garba

गरबा का ग्लोबल रूप

Garba

फोक डांसेस का जो ऑरिजिनल एसेंस था, वो अब गरबा के मॉडर्न रेंडिशन में दिखाई देता है। यहाँ तक कि तमिलनाडु और राजस्थान जैसे राज्यों में भी गरबा के प्राचीन रूप के सम्मिलित डांस फॉर्म्स देखने को मिलते हैं।

गरबा बियॉन्ड नवरात्रि
यह बात सच है कि गरबा का असली चार्म नवरात्रि के नौ दिनों में ही होता है, लेकिन आज के समय में यह नृत्य सिर्फ नवरात्रि तक सीमित नहीं रहा। शादी के फंक्शन्स में, संगीत नाइट्स पर, और अलग-अलग खुशी के अवसर पर भी लोग गरबा का आनंद लेते हैं। हर खुशी के पल में जब फैमिली और दोस्तों के बीच जश्न मनाना हो, तो गरबा से बेहतर और क्या हो सकता है?यह नृत्य अपनी पॉजिटिविटी और अपनी ऊर्जा के लिए जाना जाता है। छोटे बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक, हर कोई इस नृत्य को एंजॉय करता है। गरबा सिर्फ एक नृत्य नहीं, बल्कि एक ऐसी एक्टिविटी है जो सबको झूमने, नाचने, और जीवन का उत्सव मनाने का एक मौका देती है।

गरबा सिर्फ एक लोक नृत्य नहीं, बल्कि एक भावना है। यह नृत्य स्त्री शक्ति का प्रतीक है, जो जीवन देने का आशीर्वाद माँ दुर्गा से प्राप्त करता है। हर नवरात्रि जब यह नृत्य होता है, तो लोगों के दिलों में एक नई ऊर्जा और नया उत्साह भर जाता है। फाल्गुनी पाठक के गाने, दया भाभी का नृत्य, और वाइब्रेंट कॉस्ट्यूम्स सब मिलकर गरबा को एक अल्टीमेट सेलिब्रेशन बना देते हैं। अगर आपने अब तक गरबा का अनुभव नहीं किया है, तो इस साल नवरात्रि जरूर इस नृत्य का मज़ा लीजिए। अपने दोस्तों और परिवार के साथ गरबा ग्राउंड पर जाकर फाल्गुनी के बीट्स पर नाचिए, और इस डिवाइन उत्सव का पूरा आनंद उठाइए!

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Culture Gujrat

Dandiya: The Dance of Navratri and Its Deeper Significance

Navratri, one of the most vibrant festivals in India, is celebrated with elaborate rituals, music, and dance, all dedicated to the worship of Goddess Durga. Two of the most prominent dance forms during this festival are Garba and Dandiya Raas. While Garba is a more well-known expression of devotion to Durga, Dandiya Raas holds a deeper, more symbolic meaning tied to the legends of Lord Krishna and the eternal fight between good and evil.

The Origins of Dandiya Raas

Dandiya: The Dance of Navratri and Its Deeper Significance

Dandiya Raas is rooted in the famous Raas Lila of Lord Krishna, where he danced with the Gopis in Vrindavan. In this traditional form, participants use two sticks known as “dandiya,” which symbolize swords . This is a stark contrast to Garba, which focuses on rhythmic, gentle movements. While Garba reflects life, fertility, and devotion, Dandiya signifies the fierce battle between good and evil, making it more fast-paced and energetic.

Dandiya: A Symbol of the Battle Between Good and Evil

The symbolism of Dandiya during Navratri connects deeply with the mythological battle between Goddess Durga and the demon Mahishasura. The sticks in Dandiya represent Durga’s weapons, and the dance embodies her fight to restore balance and defeat evil. The music accompanying Dandiya, often marked by powerful drumbeats and energetic rhythms, evokes the essence of a battlefield, transforming the dance floor into a space where participants become symbolic warriors in Durga’s divine mission.

Regional Variations of Dandiya Raas

Dandiya: The Dance of Navratri and Its Deeper Significance

Although Dandiya Raas is most closely associated with Gujarat, it is celebrated in other regions with different styles. In Rajasthan, for example, a similar dance called Dang Lila is performed, where participants use only one stick instead of two. Despite these regional variations, both Dandiya and Dang Lila remain rooted in the joyful and devotional spirit of Krishna’s Raas Lila, symbolizing celebration, love, and the triumph of good over evil.

Dandiya and Garba: Two Sides of Navratri’s Celebrations

While Dandiya and Garba are distinct forms of dance, they complement each other during Navratri. Traditionally, Garba is performed before the evening aarti(devotional worship), representing the creative and nurturing aspects of life. On the other hand, Dandiya follows the aarti, symbolizing the destruction of evil. Together, these dances reflect the dual nature of life-creation and destruction, devotion and power,both aspects of Maa Durga’s divine persona.

The Modern Dandiya Mahotsav

Dandiya: The Dance of Navratri and Its Deeper Significance

In contemporary times, Dandiya Mahotsav has become a central event during Navratri, particularly in Gujarat, where large communities gather to celebrate this tradition with dance, music, and elaborate costumes. The festivities bring together people of all ages and backgrounds, uniting them in devotion and joy. The colorful, swirling attire, rhythmic clashing of sticks, and joyful energy are not just a cultural display but a spiritual tribute to the gods.

Health Benefits of Dandiya

Beyond its cultural and religious significance, Dandiya offers numerous physical and mental health benefits. As an aerobic exercise, it involves continuous movement, working on various muscle groups and enhancing physical fitness. Here are some of the key health benefits of Dandiya:

1.) Physical Exercise: Dandiya is a full-body workout that improves endurance and strengthens muscles.
2.) Weight Management: The energetic nature of the dance helps burn calories, aiding in weight management.
3.) Stress Relief: Like all forms of exercise, Dandiya triggers the release of endorphins, which elevate mood and reduce stress.
4.) Improved Coordination: The complex footwork and stick movements enhance balance and coordination
5.) Social Interaction: Dancing in a group fosters community bonds, improving mental well-being and reducing feelings of isolation.

Dandiya: The Dance of Navratri and Its Deeper Significance

As you pick up your dandiya sticks this Navratri, remember that you are not just dancing,you are participating in a timeless tradition that celebrates the victory of good, the beauty of life, and the powerful, transformative energy of Goddess Durga.

(Pic source-www.youngistan.in/)

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Culture Travel Uttarakhand

चार धाम यात्रा- यमुनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ और बद्रीनाथ

भारत में लगभग लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-बड़े धार्मिक स्थल हैं। इन्हीं में शामिल है देव भूमि कहे जाने वाले उतराखंड की गोद में चारधाम। चारधाम मुख्य रूप से हिंदू धर्म के चार पवित्र स्थलों से संबंधित है। जो इस प्रकार हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। इन्हीं चार पवित्र स्थलों को देखने के लिए यहां पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। 2023 के आंकड़ों के अनुसार 55 लाख श्रद्धालु निकले थे चारधाम यात्रा पर।

यमुनोत्री

सबसे पहले हम बात करेंगे यमुनोत्री मंदिर के बारे में। जो चारधाम मंदिर में अपनी एक अलग पहचान के लिए जाना जाता है। यह मंदिर चारधाम स्थानों में से एक मुख्य स्थान है। यमुनोत्री मंदिर मां गंगे के लिए समर्पित है। मंदिर मां गंगा के तटपर सुशोभित है, जिसके दर्शन करके श्रद्धालु खुसमय महसूस करते हैं। यह मंदिर गडवाल हिमालय से देखने पर पश्चिम किनारे पर दृष्टिगोचर होता है और उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यह मंदिर स्थापित है। भारत में दूसरी सबसे साफ़ और पवित्र कही जाने वाली नदी यमुना।  यही से अपना सफर प्रारंभ करती है और प्रयागराज में मां गंगा से संगम कर लेती है। यहीं यमुनोत्री में मां यमुना का पवित्र मंदिर कालिंदी घाटी के शिखर पर और बंदरपूंछ पर्वत के किनारे पर स्थित है। मंदिर के नजदीक ही मां यमुना की काले संगमरमर पत्थर से बनी दुर्लभ मूर्ति खड़ी हुई है। इस मंदिर के निर्माण का श्रेय टेहरी के राजा नरेश सुदर्शन शाह को जाता है। जिनके नेतृत्व में यह मंदिर 1839 में निर्मित करवाया गया था। शर्दियां का मौसम आने पर मां यमुना के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। अप्रैल मई में मां यमुना फिर से अपने कपाट वैदिक मंत्रों और उत्सव, अनुष्ठानों के बाद खोलती हैं, और श्रद्धालुओं को आत्मा तृप्ति का वरदान देती हैं। मां यमुना के आसपास कई छोटे बड़े कुंड हैं। इन्हीं में से एक है सूर्य कुंड। यह पहाड़ों और मिट्टी की तपन को अपने साथ लेकर खोलते हुए पानी के रूप में धारण करता है। भक्त इसी खोलते पानी में चावल और आलू को पांच मिनट के लिए रखकर फिर उसको प्रसाद के रूप में स्वीकार करते हैं

यमुनोत्री मंदिर में प्रवेश के पूर्व श्रद्धालु स्तंभ शिला के दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। मां यमुना का यह दुर्लभ स्थान समुद्र से लगभग 3,291 मीटर ऊंचाई पर बना हुआ है। यह स्थान संत असित मुनि से जुड़ा हुआ है। आध्यात्मिक केंद्र कहे जाने वाले इस स्थान में मां गंगा की पवित्रता और इसका शांत बहाव मनमोहक और आकर्षक प्रतीत होता है। इस दिव्य जगह पर बसंत पंचमी, फूल देई, ओलगिया के त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाए जाते हैं। यमुनोत्री की यात्रा श्रद्धालुओं की आस्था के लिए एक भव्य स्थल है। यहां स्नान करने से श्रद्धालु पाप मुक्त होते हैं।

गंगोत्री

चारधामाें में से एक गंगोत्री, उत्तरकाशी जिले में एक छोटा शहर है, इसी छोटे और आकर्षक शहर के मध्य में स्थित है, गंगोत्री मंदिर।  जो अपनी अकाट्य, सुंदरता के लिए जाना जाता है। ऋषिकेश से महज़ 12 घण्टे यात्रा करने पर यह पवित्र स्थल गडवाल हिमालय के ऊंचे शिखर, गिलेशियारों और जंगल के बीच में स्थित है। मां गंगा अपने इर्द गिर्द इतनी सुंदरता समेटे हुए हैं की मानो स्वर्ग का द्वार यहीं से शुरू होता है। भारत के सभी हिन्दू धार्मिक स्थलों में से एक गंगोत्री सबसे ज्यादा ऊंचाई पर बसा हुआ स्थल है। किवदंतियों के अनुसार भगवान शंकर ने मां गंगा को स्वर्ग से अपनी जटाओं द्वारा मुक्त किया था। कितने आश्चर्य और प्रसन्नता की बात है की मां गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है, जो गंगोत्री से उन्नीस किलोमीटर दूर स्थित है। यहां आप बस ट्रैकिंग द्वारा ही पहुंच सकते हैं क्योंकि यह काफ़ी दुर्लभ रास्ता है। अन्य कहाबत अनुसार माना जाता है की महर्षि भागीरथी ने कठिन तपस्या कर मां गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने के लिए मजबूर किया था। गंगा नदी से बहुत सारी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। जो अपने आप में अदभुत हैं। मंदिर में स्थित है, गर्भगृह उसी गर्भगृह में मां गंगा की मूर्ति चांदी की पोशाक पहने हुए विराजमान हैं, मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व श्रद्धालु पहले गंगा के कंचन पानी में स्नान करते हैं। और स्नान करने के पश्चात वह मंदिर में प्रवेश कर मां गंगा के दर्शन करते हैं। दर्शन कर श्रद्धालु मन की शांति से परिचित होते हैं। यहां का वातावरण सुंदरता के सभी आयामों से लिप्त है।

केदारनाथ

Uttarakhand Char Dham Yatra

केदारनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र पावन स्तंभ है। जो गिरिराज हिमालय के केदार नामक पर्वत पर बना हुआ है। केदार घाटी को हम मुख्य रूप से दो भागों बटा हुआ देखते हैं। एक नर और दूसरा नारायण चोटी। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक नर और नारायण ऋषि की तपोभूमि के रूप में जानते हैं। केदारनाथ उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। इसे अर्धज्योतिरलिंग भी कहा जाता है। यहां पर स्थित स्वंभू ज्योतिर्लिंग अतिप्राचीन और भव्य है। माना जाता है इस मंदिर का निर्माण जन्मेजय ने कराया था। और इसका जीर्णोद्वार आदिशंकराचार्य ने किया था।

Uttarakhand Char Dham Yatra

सर्वप्रथम इस मंदिर का निर्माण पांडवो ने करवाया था। प्रकृति के बदलाव और भौगोलिक स्तिथियों के परिवर्तन के कारण यह मंदिर खंडर के रूप में तब्दील हो गया था। लगभग 400 से 500 वर्ष तक यह मंदिर बर्फ में दफन रहा। जिसके बाद आदिशंकराचार्य ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया था। आदिशंकराचार्य की समाधि आज भी इस मंदिर के पिछले भाग में बनी हुई है। इस मंदिर को लगभग 8 वी शताब्दी ईसा पूर्व बनाया गया था।

यहां की खास बात यह है कि  दीपावली पर्व के दूसरे दिन शीतऋतु के प्रारंभ होने पर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। और इस मंदिर में एक भव्य दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। जो लगभग 6 महीने तक मंदिर बंद रहने तक वैसे ही चलता रहता है, और छः महीने बाद जब मंदिर के कपाट खुलते हैं तो भारी संख्या में श्रद्धालु इस दीपधूप को लेने जाते हैं, और भगवान की पूजा आराधना कर स्वयं को भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर देते हैं। हिमाचल की गोद में केदारनाथ के इस भव्य मंदिर में प्राकृतिक विपत्तियां मड़राती रहती हैं। मंदिर के इतिहास में ऐसी कई आपदाएं घटित हो चुकी हैं। जिन पर बॉलीवुड ने फिल्में भी बनाई हैं। एक फिल्म तो केदारनाथ नाम से ही बनी हुई है। जिसके अभिनेता सुशांत राजपूत और अभिनेत्री सारा अली ख़ान थीं।

बद्रीनाथ

Uttarakhand Char Dham Yatra

भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर सौंदर्य, शुद्ध वातावरण, बर्फ सुंदरता, अलकनंदा नदी की छलचलाहट प्राकृतिक सौन्दर्य आदि से परिपूर्ण है। यह एकमात्र ऐसा स्थान है जहां साल भर में लोग सबसे ज्यादा देखने जाते हैं। वैसे तो इस मंदिर में अनेक देवी देवताओं की मूर्तियां हैं लेकिन भगवान विष्णु की एक काले संगमरमर से बनी एक मीटर ऊंचाई वाली यह मूर्ति दुर्लभ और आकर्षक है। मंदिर में सूर्यकुण्ड जैसे एक तप्तकुंड है जो ओषधिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पर साल में अनेकों भव्य मेलों का आयोजन होता है। जिसका लुत्फ उठाने के लिए पर्यटक और श्रद्धालु हमेशा आतुर रहते हैं।तथाकथित शब्दों के अनुसार इस मंदिर के निर्माण का श्रेय भी आदिशंकराचार्य को दिया जाता है। किबदंतियों के अनुसार भगवान विष्णु एक ऐसे स्थान की तलास कर रहे थे। जो शान्ति का केन्द्र हो जहां वह ध्यान कर सकें। तब भगवान विष्णु बद्रीनाथ नामक इस पवित्र स्थान को चुना था। भगवान विष्णु ध्यान में इतने लीन थे कि उनको हिमालय की कड़कड़ाती सर्दी का बिल्कुल अहसास नहीं हुआ। तब माता लक्ष्मी ने उनकी सुरक्षा के लिए स्वयं को बद्री ब्रक्ष बना लिया। जिसके बाद भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर। इस देव भूमि को बद्रीकाश्रम नाम दिया था।

इस पवित्र स्थल के कुछ प्रमाण पुराणों में भी दिए गए हैं। मंदिर मौसम  की मार के कारण शर्दियों के समय में बंद कर दिया जाता है। मंदिर में भव्य आरती प्रज्वलित की जाती है और यह आरती श्रद्धालुओं के भाग्य खोल देती है। इस आरती में इतनी आकर्षक ध्वनियों की आवाजें, दीपों की वह लहलहाती धूप और पुजारियों के मंत्र पाठ करने की कला अमूर्त होती है।

चारधाम यात्रा के लिए पंजीकरण कैसे करें –

चारधाम यात्रा के लिए पंजीकरण करने का सबसे सरल तरीका ऑनलाइन है। यदि आप यह निश्चित कर चुके हैं कि आप चारधाम की यात्रा करना चाहते हैं। तो आप उत्तराखंड पर्यटन विभाग की आधिकारिक वेबसाइट ragistrationandtouriatcare.uk.gov.in पर जाकर पंजीकरण कर सकते हैं। इसके अलावा व्हाट्सएप मैसेज कर भी आप अपना पंजीकरण कर सकते हैं जिसके लिए दूरभाष 8394833833 है। एक और अन्य रास्ता उपलब्ध है पंजीकरण के लिए  आप कॉल करके भी अपना पंजीकरण कर सकते हैं। इसके लिए आपको टोल फ्री नंबर की आवश्यकता होगी जो इस प्रकार है 0135- 1364 । इन माध्यमों से आप अपना रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं। इसके अलावा आप अपने मोबाइल फोन में गूगल प्ले स्टोर से touristcareuttarakhand नामक एप्लीकेशन डाउनलोड कर भी अपना पंजीकरण कर सकते हैं।

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