Best Hindi Travel Blog -Five Colors of Travel

Categories
Culture Travel Uttarakhand

चार धाम यात्रा- यमुनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ और बद्रीनाथ

भारत में लगभग लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-बड़े धार्मिक स्थल हैं। इन्हीं में शामिल है देव भूमि कहे जाने वाले उतराखंड की गोद में चारधाम। चारधाम मुख्य रूप से हिंदू धर्म के चार पवित्र स्थलों से संबंधित है। जो इस प्रकार हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। इन्हीं चार पवित्र स्थलों को देखने के लिए यहां पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। 2023 के आंकड़ों के अनुसार 55 लाख श्रद्धालु निकले थे चारधाम यात्रा पर।

यमुनोत्री

सबसे पहले हम बात करेंगे यमुनोत्री मंदिर के बारे में। जो चारधाम मंदिर में अपनी एक अलग पहचान के लिए जाना जाता है। यह मंदिर चारधाम स्थानों में से एक मुख्य स्थान है। यमुनोत्री मंदिर मां गंगे के लिए समर्पित है। मंदिर मां गंगा के तटपर सुशोभित है, जिसके दर्शन करके श्रद्धालु खुसमय महसूस करते हैं। यह मंदिर गडवाल हिमालय से देखने पर पश्चिम किनारे पर दृष्टिगोचर होता है और उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यह मंदिर स्थापित है। भारत में दूसरी सबसे साफ़ और पवित्र कही जाने वाली नदी यमुना।  यही से अपना सफर प्रारंभ करती है और प्रयागराज में मां गंगा से संगम कर लेती है। यहीं यमुनोत्री में मां यमुना का पवित्र मंदिर कालिंदी घाटी के शिखर पर और बंदरपूंछ पर्वत के किनारे पर स्थित है। मंदिर के नजदीक ही मां यमुना की काले संगमरमर पत्थर से बनी दुर्लभ मूर्ति खड़ी हुई है। इस मंदिर के निर्माण का श्रेय टेहरी के राजा नरेश सुदर्शन शाह को जाता है। जिनके नेतृत्व में यह मंदिर 1839 में निर्मित करवाया गया था। शर्दियां का मौसम आने पर मां यमुना के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। अप्रैल मई में मां यमुना फिर से अपने कपाट वैदिक मंत्रों और उत्सव, अनुष्ठानों के बाद खोलती हैं, और श्रद्धालुओं को आत्मा तृप्ति का वरदान देती हैं। मां यमुना के आसपास कई छोटे बड़े कुंड हैं। इन्हीं में से एक है सूर्य कुंड। यह पहाड़ों और मिट्टी की तपन को अपने साथ लेकर खोलते हुए पानी के रूप में धारण करता है। भक्त इसी खोलते पानी में चावल और आलू को पांच मिनट के लिए रखकर फिर उसको प्रसाद के रूप में स्वीकार करते हैं

यमुनोत्री मंदिर में प्रवेश के पूर्व श्रद्धालु स्तंभ शिला के दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। मां यमुना का यह दुर्लभ स्थान समुद्र से लगभग 3,291 मीटर ऊंचाई पर बना हुआ है। यह स्थान संत असित मुनि से जुड़ा हुआ है। आध्यात्मिक केंद्र कहे जाने वाले इस स्थान में मां गंगा की पवित्रता और इसका शांत बहाव मनमोहक और आकर्षक प्रतीत होता है। इस दिव्य जगह पर बसंत पंचमी, फूल देई, ओलगिया के त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाए जाते हैं। यमुनोत्री की यात्रा श्रद्धालुओं की आस्था के लिए एक भव्य स्थल है। यहां स्नान करने से श्रद्धालु पाप मुक्त होते हैं।

गंगोत्री

चारधामाें में से एक गंगोत्री, उत्तरकाशी जिले में एक छोटा शहर है, इसी छोटे और आकर्षक शहर के मध्य में स्थित है, गंगोत्री मंदिर।  जो अपनी अकाट्य, सुंदरता के लिए जाना जाता है। ऋषिकेश से महज़ 12 घण्टे यात्रा करने पर यह पवित्र स्थल गडवाल हिमालय के ऊंचे शिखर, गिलेशियारों और जंगल के बीच में स्थित है। मां गंगा अपने इर्द गिर्द इतनी सुंदरता समेटे हुए हैं की मानो स्वर्ग का द्वार यहीं से शुरू होता है। भारत के सभी हिन्दू धार्मिक स्थलों में से एक गंगोत्री सबसे ज्यादा ऊंचाई पर बसा हुआ स्थल है। किवदंतियों के अनुसार भगवान शंकर ने मां गंगा को स्वर्ग से अपनी जटाओं द्वारा मुक्त किया था। कितने आश्चर्य और प्रसन्नता की बात है की मां गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है, जो गंगोत्री से उन्नीस किलोमीटर दूर स्थित है। यहां आप बस ट्रैकिंग द्वारा ही पहुंच सकते हैं क्योंकि यह काफ़ी दुर्लभ रास्ता है। अन्य कहाबत अनुसार माना जाता है की महर्षि भागीरथी ने कठिन तपस्या कर मां गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने के लिए मजबूर किया था। गंगा नदी से बहुत सारी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। जो अपने आप में अदभुत हैं। मंदिर में स्थित है, गर्भगृह उसी गर्भगृह में मां गंगा की मूर्ति चांदी की पोशाक पहने हुए विराजमान हैं, मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व श्रद्धालु पहले गंगा के कंचन पानी में स्नान करते हैं। और स्नान करने के पश्चात वह मंदिर में प्रवेश कर मां गंगा के दर्शन करते हैं। दर्शन कर श्रद्धालु मन की शांति से परिचित होते हैं। यहां का वातावरण सुंदरता के सभी आयामों से लिप्त है।

केदारनाथ

Uttarakhand Char Dham Yatra

केदारनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र पावन स्तंभ है। जो गिरिराज हिमालय के केदार नामक पर्वत पर बना हुआ है। केदार घाटी को हम मुख्य रूप से दो भागों बटा हुआ देखते हैं। एक नर और दूसरा नारायण चोटी। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक नर और नारायण ऋषि की तपोभूमि के रूप में जानते हैं। केदारनाथ उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। इसे अर्धज्योतिरलिंग भी कहा जाता है। यहां पर स्थित स्वंभू ज्योतिर्लिंग अतिप्राचीन और भव्य है। माना जाता है इस मंदिर का निर्माण जन्मेजय ने कराया था। और इसका जीर्णोद्वार आदिशंकराचार्य ने किया था।

Uttarakhand Char Dham Yatra

सर्वप्रथम इस मंदिर का निर्माण पांडवो ने करवाया था। प्रकृति के बदलाव और भौगोलिक स्तिथियों के परिवर्तन के कारण यह मंदिर खंडर के रूप में तब्दील हो गया था। लगभग 400 से 500 वर्ष तक यह मंदिर बर्फ में दफन रहा। जिसके बाद आदिशंकराचार्य ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया था। आदिशंकराचार्य की समाधि आज भी इस मंदिर के पिछले भाग में बनी हुई है। इस मंदिर को लगभग 8 वी शताब्दी ईसा पूर्व बनाया गया था।

यहां की खास बात यह है कि  दीपावली पर्व के दूसरे दिन शीतऋतु के प्रारंभ होने पर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। और इस मंदिर में एक भव्य दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। जो लगभग 6 महीने तक मंदिर बंद रहने तक वैसे ही चलता रहता है, और छः महीने बाद जब मंदिर के कपाट खुलते हैं तो भारी संख्या में श्रद्धालु इस दीपधूप को लेने जाते हैं, और भगवान की पूजा आराधना कर स्वयं को भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर देते हैं। हिमाचल की गोद में केदारनाथ के इस भव्य मंदिर में प्राकृतिक विपत्तियां मड़राती रहती हैं। मंदिर के इतिहास में ऐसी कई आपदाएं घटित हो चुकी हैं। जिन पर बॉलीवुड ने फिल्में भी बनाई हैं। एक फिल्म तो केदारनाथ नाम से ही बनी हुई है। जिसके अभिनेता सुशांत राजपूत और अभिनेत्री सारा अली ख़ान थीं।

बद्रीनाथ

Uttarakhand Char Dham Yatra

भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर सौंदर्य, शुद्ध वातावरण, बर्फ सुंदरता, अलकनंदा नदी की छलचलाहट प्राकृतिक सौन्दर्य आदि से परिपूर्ण है। यह एकमात्र ऐसा स्थान है जहां साल भर में लोग सबसे ज्यादा देखने जाते हैं। वैसे तो इस मंदिर में अनेक देवी देवताओं की मूर्तियां हैं लेकिन भगवान विष्णु की एक काले संगमरमर से बनी एक मीटर ऊंचाई वाली यह मूर्ति दुर्लभ और आकर्षक है। मंदिर में सूर्यकुण्ड जैसे एक तप्तकुंड है जो ओषधिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पर साल में अनेकों भव्य मेलों का आयोजन होता है। जिसका लुत्फ उठाने के लिए पर्यटक और श्रद्धालु हमेशा आतुर रहते हैं।तथाकथित शब्दों के अनुसार इस मंदिर के निर्माण का श्रेय भी आदिशंकराचार्य को दिया जाता है। किबदंतियों के अनुसार भगवान विष्णु एक ऐसे स्थान की तलास कर रहे थे। जो शान्ति का केन्द्र हो जहां वह ध्यान कर सकें। तब भगवान विष्णु बद्रीनाथ नामक इस पवित्र स्थान को चुना था। भगवान विष्णु ध्यान में इतने लीन थे कि उनको हिमालय की कड़कड़ाती सर्दी का बिल्कुल अहसास नहीं हुआ। तब माता लक्ष्मी ने उनकी सुरक्षा के लिए स्वयं को बद्री ब्रक्ष बना लिया। जिसके बाद भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर। इस देव भूमि को बद्रीकाश्रम नाम दिया था।

इस पवित्र स्थल के कुछ प्रमाण पुराणों में भी दिए गए हैं। मंदिर मौसम  की मार के कारण शर्दियों के समय में बंद कर दिया जाता है। मंदिर में भव्य आरती प्रज्वलित की जाती है और यह आरती श्रद्धालुओं के भाग्य खोल देती है। इस आरती में इतनी आकर्षक ध्वनियों की आवाजें, दीपों की वह लहलहाती धूप और पुजारियों के मंत्र पाठ करने की कला अमूर्त होती है।

चारधाम यात्रा के लिए पंजीकरण कैसे करें –

चारधाम यात्रा के लिए पंजीकरण करने का सबसे सरल तरीका ऑनलाइन है। यदि आप यह निश्चित कर चुके हैं कि आप चारधाम की यात्रा करना चाहते हैं। तो आप उत्तराखंड पर्यटन विभाग की आधिकारिक वेबसाइट ragistrationandtouriatcare.uk.gov.in पर जाकर पंजीकरण कर सकते हैं। इसके अलावा व्हाट्सएप मैसेज कर भी आप अपना पंजीकरण कर सकते हैं जिसके लिए दूरभाष 8394833833 है। एक और अन्य रास्ता उपलब्ध है पंजीकरण के लिए  आप कॉल करके भी अपना पंजीकरण कर सकते हैं। इसके लिए आपको टोल फ्री नंबर की आवश्यकता होगी जो इस प्रकार है 0135- 1364 । इन माध्यमों से आप अपना रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं। इसके अलावा आप अपने मोबाइल फोन में गूगल प्ले स्टोर से touristcareuttarakhand नामक एप्लीकेशन डाउनलोड कर भी अपना पंजीकरण कर सकते हैं।

Categories
Delhi Destination Travel

राष्ट्रीय रेल संग्रहालय, दिल्ली

रेल चली भाई रेल चली, छप्पक- छप्पक रेल चली।

बचपन जाने कब इन सुगुच्छित पंक्तियों को सुनकर जवानी में बदल गया। एक समय था। जब लोग पैदल चलते थे। फिर घोड़ा, घोड़े से बैलगाड़ी, बैलगाड़ी से साइकिल, साइकिल से मोटरसाइकिल, मोटरसाइकिल से चारचक्का यानी कार। फिर बस, ट्रेन, हवाईजहाज, जहाज इत्यादि। पहले पहल हमें ट्रेन के बारे में सुनकर ऐसा लगता था, मानो किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को वह तीन शब्द कह दिए हों, जिनको सुनने के लिए उसका प्रेमी वर्षों से आश लगाए हुए था।

खैर, समय का चक्र गतिमान है। किसी के लिए ठहरता थोड़ी है। वैसा ही कुछ बचपन के साथ हुआ। अब तो रेल की यात्रा भी आम बात हो गई है।
“समय का चक्कर है बाबू भैया, समय का चक्कर”

भारत में ट्रेन

मसलन, भारत में सबसे पहली ट्रेन 1853 में मुंबई से ठाणे चली थी। और हम यह भी जानते ही हैं की रेल की शुरुआत हमारे देश में अंग्रेजों ने की। वह एक अलग मसला है की उसमें उनका ही स्वार्थ था। भले इसमें अंग्रेजों का स्वार्थ था, लेकिन हम भारतीयों के लिए तो एक स्वर्ण अवसर साबित हुआ है।
आज की बात करें तो हिंदुस्तान में 24 मिलियन यात्री रोजाना ट्रेन से आबा- जाबी करते हैं। और लगभग 203 टन माल रोजाना ट्रेनों द्वारा आयात-निर्यात होता है। भारतीय रेल नेटवर्क को दुनियां के सबसे बड़े नेटवर्कों में से एक माना जाता है। दरअसल, बात क्या है जब 24 मिलियन लोग ट्रेन से रोजाना सफर करते हैं। तो उनके मन में ट्रेन और ट्रेन के अविष्कार के बारे में प्रश्न तो उठते ही होंगे। तो इसको बारीकी से समझने के लिए रेल संग्रहालय सबसे उपयोगी स्रोत हैं।National Rail Museum

पूरे भारत भर में छः रेल संग्रहालय हैं। जो इस प्रकार हैं-

  1. राष्ट्रीय रेल संग्रहालय दिल्ली
  2. हाबड़ा रेलवे संग्रहालय
  3. जोशी का लघु संग्रहालय
  4. रेलवे संग्रहालय मैसूर
  5. चेन्नई रेल संग्रहालय
  6. रेवाड़ी रेल संग्रहालय इत्यादि।

हम इस बार बात करेंगे राष्ट्रीय रेल संग्रहालय दिल्ली की।
जो दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित है। बैसे तो यह संग्रहालय लगभग 170 वर्ष पुराना है, परन्तु इसको संग्रहालय की मान्यता 1 फरवरी 1977 को दी गई। तभी से इसके दरवाजे लोगों के लिए खुल गए। इस संग्रहालय की खास बात यह है कि जो आपको अन्य किसी भी संग्रहालय में नहीं मिलेगा। वह पुराने से पुराने इंजन यहां आपको दृष्टिगोचर हो जाएंगे। भाप के इंजन, कोयले से चलने वाले इंजन और आज के समय में प्रयुक्त इंजन सब आपको क्रमबद्ध तरीके से दिखाई देंगे।

टॉय ट्रेन मनोरंजन का साधन

टॉय ट्रेन संग्रहालय का भ्रमण करने का अच्छा माध्यम है। यह ट्रेन एक चक्कर में ही आपको पूरा संग्रहालय भ्रमण करा देगा। इसमें बैठकर आप पूरे संग्रहालय को खूबसूरती के साथ और मनोरंजन के साथ देख सकते हो। टॉय ट्रेन का आनंद लेने के लिए एक वयस्क के लिए 20 रुपए और बच्चों के लिए 10 रुपए हैं। इस 20 रूपय की आपको अलग टिकट लेनी होगी और इसमें आपको पूरे संग्रहालय का एक ही बार चक्कर लगवाया जाएगा। इसमें बैठकर अच्छे से फोटोग्राफी भी की जा सकती है और वीडियोग्राफी भी की जा सकती है।

ग्यारह एकड़ में में फैला यह संग्रहालय भारत का सबसे बड़ा संग्रहालय है। इस संग्रहालय में 1862 में बनाया गया रामगोटी इंजन भी रखा हुआ है। जो अब जर्जर हालत में है। कुछ समय और इसकी देख रेख नहीं हुई तो यह पूर्णता मिट्टी में लुप्त हो जाएगा। इस संग्रहालय का यह दूसरा सबसे पुराना इंजन है। इसका नाम पश्चिम बंगाल के अंतिम महाप्रबंधक रहे श्री रामगौटी मुखर्जी के नाम पर रखा गया था।

खूबसूरत बागान

चारों तरफ आपको हरियाली ही हरियाली दिखाई देगी। ना ना प्रकार के पुष्पों से सुसज्जित क्यारियां भी नजर आएंगी। जो आपको एक बेहतर बगीचे का आभास कराएगा। कई प्रकार के पेड़ पौधों से सजा हुआ है यह पूरा संग्रालय। चारों तरफ आपको सफाईकर्मी नजर आ जाएंगे। जो इस संग्रहालय को गंदगी से बचाते हैं। पूरे संग्रहालय को आप मस्ती के साथ देख और समझ सकते हैं।

भारतीय रेल का इतिहास

जैसा कि विदित है। रेल की शुरुआत भारत में 1853 में हुई। इसमें 1853 से सैकड़ों इंजन बदल चुके हैं। बोगियों की बनावट पहले कैसी थी, और आज किस प्रकार से इसमें बदलाव हुए हैं। सब आप अपनी आखों से देख और पढ़ सकते हैं। क्या आप यह जानते हैं की आप जिन डिब्बों में आज सफर करते हैं वह पहले लकड़ी के बनाए जाते थे। वैसे ही पहले भाप का इंजन, फिर आग का इंजन और आज बिजली के इंजन पटरियों पर दौड़ते हुए देख सकते हैं।

क्या खास है संग्रहालय में

रेलों के बारीक से बारीक पुर्जे समझने के लिए आपको यह संग्रहालय लाभदायक होगा। ऐतिहासिक, राजनीतिक, और सामाजिक तौर तरीके आपको समझ आ जाएंगे, कि किस तरीके से राजनीतिक सपोर्ट ने रेल यात्रा को सहारा दिया। रेल की पटरियां पहलेपहल लकड़ियां से बनाई जाती थीं। किस सन में किस इंजन का अविष्कार हुआ ये सभी प्रश्न आपके रेल संग्रहालय में हल हो जाएंगे। रेल के छोटे से छोटे नट से लेकर बड़े से बड़े पुर्जे आप यहां देख सकते हैं। यदि आप रेल लाइन में जॉब करना चाहते हैं तो आपको जरूर संग्रहालय का भ्रमण करना चाहिए। आप यहां किताबों की तरह ही सीख पाएंगे। प्रैक्टिकल के तौर पर यह म्यूजियम आपको बेहतर शिक्षा देगा।

यादगार पल जिएंगे आप इस संग्रहालय में

यदि आप एक दिन में इतिहास समझना चाहें तो आपका यह सोचना बिल्कुल निरर्थक है। लेकिन आप एक दिन इस म्यूजियम का दौरा करते हैं तो आपको अधिकतर प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। आपको समझने में आसानी होगी कि कैसे उस समय भी डिब्बे क्लासों में विभाजित हुआ करते थे। फ़स्ट क्लास, सेकेंड क्लास, और थर्ड क्लास इत्यादि। आप अपने इस दौरे को याद रखने के लिए स्मृति चिन्ह भी खरीद सकते हैं। को आपके इस पल को यादगार बना के रखेगा।

दुर्लभ रेल गैलरी

देश के दुर्लभ से दुर्लभ ब्रिज और सुरंगों के स्ट्रक्चर इस गैलरी में संभाल कर रखे गए हैं। लकड़ी, लोहा, पीतल, तांबा सभी धातुओं से बनी दुर्लभ वस्तुएं यहां विद्यमान हैं। इस गैलरी में अंदर जाने पर आपको रेल विभाग का बड़ा सा लोगो भी देखने को मिलेगा। जैसे ही आप अंदर जाओगे। आप पूरी गैलरी को देखने में इतने व्यस्त हो जाएंगे की आपको पता नहीं चलेगा और आप बाहर के गेट पर पहुंच जाएंगे। क्योंकि यह गैलरी गोलाकार स्थिति में है। जो की आपको एक भूल भुलैया के जैसे लगेगी।

कुछ महत्वपूर्ण बातें

रेल एक दुर्लभ वाहन है, जब तक आप इसके सफर का मजा नहीं लेंगे आप इसके बारे में नहीं समझ पाएंगे। एक बार आप जरूर रेल का सफर कीजिए।

  • ट्रेन की पटरियों के बीच की दूरी 1435 मिलीमीटर यानी 4 फीट 8 (1/2 ) इंच होती है।
  • रेल के प्रत्येक कोच की लंबाई 25मीटर होती है।
  • यात्री गाड़ी में अधिकतम 24 कोच लगाए जाते हैं।
  • पच्चीस मीटर का कोच होता है और 24 कोच होते हैं इसका मतलब रेल गाड़ी की लंबाई कुल 600 मीटर होती है। एक बात और याद रखने योग्य है की रेल की अधिकतम लंबाई 650 मीटर हो सकती है।
  • भारतीय रेलवे में 13,000 यात्री ट्रेने और 8,000 मालगाड़ियां चलती हैं जो 7,000 स्टेशनों को कवर करती हैं।

भारत का सबसे पुराना रेल संग्रहालय पश्चिम बंगाल में विद्यमान हावड़ा जंक्शन पर निर्मित है। जिसकी स्थापना 1852 में हुई थी। लेकिन दिल्ली का रेल संग्रहालय भारत का सबसे बड़ा रेल संग्रहालय माना जाता है। को दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित है। जो पूरे 11 एकड़ में बना हुआ है। इसकी खास बात यह है कि यहां पर 70,80,90 टन तक के इंजन अभी भी सुरक्षित अवस्था में रखे हुए हैं। इस संग्रहालय में बिभन्न जगहों के रेलवे स्टेशनों का स्ट्रक्चर भी बना हुआ है। जो अपनी अलग ही छाप छोड़ने में काबिल है। इसकी स्थापना का श्रेय ब्रिटिश वास्तुकार एम जी सेटो को जाता है। यह संग्रहालय में नायाब से नायाब चीजों से लैस है। राजे रजवाड़ों के प्रयोग वाले कोच भी सुरक्षित रखे गए हैं।

समय का चक्र है चलता ही रहता है। कभी समय था जब कोसों की दूरी पैदल तय करनी होती थी। और आज कुछ ही घंटों में सैकडों किलोमीटर की दूरी तय करने में हम सक्षम हैं। इसका श्रेय जाता है हमारे देश के विज्ञानिकों को इंजीनियरों को जिनके संघर्ष से यह सब सुलभ हो पाया है।

संग्रहालय जानें का उचित समय
राष्ट्रीय रेल संग्रहालय के खुलने का समय सुबह 10:00 बजे से 4:30 बजे तक का है। जाने के लिए सर्दियों के समय में आपको समय की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। लेकिन आप यदि गर्मियों के समय में यहां पर जाते हो तो, आपको या तो सुबह की शिफ्ट लेना चाहिए। या फिर शाम की शिफ्ट।

चूंकि दिक्कत तो कोई नहीं है, लेकिन गर्मियों के दिनों में चारों तरफ लोहे से बने हुए इंजन आग के जैसे धदकते हैं। जिसमें आप फ़ोटोग्राफी या वीडियोग्राफी करने में असमर्थ रह जाएंगे। और आप घूमने का लुत्फ़ उठाने से भी वंचित रह जाएंगे।

टिकट कैसे प्राप्त करें

डिजिटल इंडिया के दौर में हैं हम। ऑनलाइन टिकट प्राप्त कर आप आसानी से लाइन में लगने से बच सकते है। नेशनल म्यूज़ियम की आधिकारिक वेबसाइट पर जाकर आप टिकट बुक कर सकते हैं। टिकट बुक करने के लिए ऑफलाइन भी व्यवस्था है। यदि आप इंटरनेट की दुनियां से दूर हैं तो। आपको संग्रहालय में प्रवेश करते ही टिकट काउंटर दिख जाएगा। आप आसानी से यहां से भी टिकट प्राप्त कर सकते हैं।
टिकट खर्च

टिकट के लिए यदि आप वयस्क हैं तो वयस्क के लिए 50 रुपए और बच्चे के लिए मात्र 20 रुपए।

कैसे पहुंचे

यह संग्रहालय दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित है। पिन कोड 110021 है। नजदीक बस स्टॉप रेल संग्रहालय है।
यहां से मात्र 500 मीटर की दूरी पर संग्रहालय है। बस स्टॉप से यदि आप चाहें तो पैदल पहुंच सकते हैं, या फिर ऑटो रिक्शा भी ले सकते हैं। ऑटो रिक्शा आपको मात्र 20रुपए में रेल संग्रहालय छोड़ देगा।

Research- Pushpender Ahirwar //Edited by-Pardeep Kumar

Categories
Bazar Destination Travel

How To Save Money for a Trip

Saving money for a trip requires a mix of planning, discipline, and smart financial habits. Here are some steps to help you save effectively:

How To Save Money for a Trip

1. Set a Clear Goal

  • Determine Your Destination: Decide where you want to go and research the costs associated with the location.
  • Estimate Costs: Calculate the total cost of the trip, including airfare, accommodation, food, activities, transportation, and souvenirs.
  • Set a Timeline: Determine when you want to take the trip and how long you have to save.

2. Create a Budget

  • Track Your Expenses: Monitor your current spending to identify where you can cut back.
  • Set Monthly Savings Goals: Based on your trip’s total cost and your timeline, set monthly or weekly savings targets.
  • Separate Savings Account: Open a dedicated savings account for your trip to avoid spending the money on other things.
How To Save Money for a Trip

3. Reduce Unnecessary Expenses

  • Cut Back on Luxuries: Reduce spending on non-essential items like dining out, entertainment, and shopping.
  • Save on Utilities: Be mindful of your energy consumption and reduce utility bills where possible.
  • DIY Solutions: Find free or low-cost alternatives for services you usually pay for, such as doing your own nails or haircuts.

4. Increase Your Income

  • Side Jobs: Take on a part-time job, freelance work, or gig economy jobs to earn extra income.
  • Sell Unwanted Items: Declutter your home and sell items you no longer need online or at a garage sale.
  • Monetize Hobbies: If you have a hobby like crafting or photography, consider selling your creations or services.

5. Use Savings Tools and Apps

  • Budgeting Apps: Use apps like Mint, YNAB (You Need A Budget), or PocketGuard to track your spending and savings.
  • Automate Savings: Set up automatic transfers to your savings account to ensure you consistently save.
  • Cashback and Rewards: Use credit cards that offer cashback or rewards for purchases you need to make, but pay off the balance each month to avoid interest.

6. Find Ways to Save on Trip Costs

  • Travel Deals: Look for discounts on flights, accommodations, and activities. Sign up for alerts from travel deal websites.
  • Off-Season Travel: Travel during the off-season when prices are lower.
  • Flexible Dates: If possible, be flexible with your travel dates to take advantage of cheaper rates.

7. Stay Motivated

  • Visual Reminders: Keep photos of your destination or a countdown calendar to remind you of your goal.
  • Celebrate Milestones: Reward yourself for reaching savings milestones to stay motivated.
  • Involve Others: Share your goal with friends or family who can offer support and encouragement.

By setting a clear goal, creating a budget, cutting unnecessary expenses, finding additional income sources, using savings tools, and staying motivated, you’ll be well on your way to saving enough money for your dream trip.

Categories
Category Destination Travel

रहस्यों का गढ़ है-सांची का स्तूप

भारत का हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में स्थित है सांची, जो रायसेन जिले के अंतर्गत आता है। जिसका निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। सांची अपनी कलाकृतियों से पर्यटकों को भावविभोर करता है। इसकी कलाकृतियों में जुड़े चार शेर वाला राष्ट्रीय चिह्न यही से लिया गया है। जिसको आप रुपयों, बैंको और अन्य सरकारी चीजों पर देखते हैं। इस ब्लॉग में हम साँची के स्तूप के विषय में बेहद जरुरी और दिलचस्प तथ्यों के बारे में बात करेंगे (Stupa of Sanchi)

Stupa of Sanchi
sanchi ka stoop

मुख्य रूप से इसका उपयोग सरकारी मुहर लगाने में या पासपोर्ट पर मुद्रित किए जाने में होता है। इस चार शेर वाले चिह्न को 26 जनवरी 1950 को अपनाया गया था। किसी भी निजी संस्था द्वारा इसका उपयोग करना दंडनीय हो सकता है। इस राष्ट्रीय चिह्न में हम तीन ही शेर देख पाते हैं। दरअसल,  चारों शेर अपनी पीठ जोड़कर खड़े हुए हैं, जिसके चलते हमेशा एक शेर पीछे हो जाता है, जिसे हम नहीं देख पाते हैं। इन शेरों के पैरों के नीचे एक चक्र गढ़ा हुआ है जो तथागत बुद्ध के पहले उपदेश का साक्षी है जिसको धर्मोपदेश प्रवर्तन या धम्मचक्र प्रवर्तन पूर्णिमा कहा जाता है।  यह चक्र तब का प्रतीक है, जब तथागत ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला धर्म का उपदेश दिया था। तथागत का पहला धर्म उपदेश आज के उत्तरप्रदेश राज्य के सारनाथ में दिया गया था। वहां भी सम्राट अशोक ने एक अलौकिक बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। जो आज अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लोगों को अपनी और आकर्षित करता है।

सांची के स्तूप अपने आप में एक रहस्य हैं, जो कई प्रयासों के बाबजूद भी रहस्य ही बने हुए हैं। सांची स्तूप 91 मीटर ऊंची पहाड़ी की शिखर पर बना हुआ है। जो कई एकड़ जमीन में फैला हुआ है। स्तूप शब्द का निर्माण “थूप” शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ होता था मिट्टी से गुथा हुआ।

विश्व विरासत स्थल और सम्राट अशोक से जुड़ा है साँची का स्तूप

सांची को यूनेस्को द्वारा सन् 1989 में विश्व विरासत घोषित कर दिया। यहां पर मुख्य स्तूप के अलावा 92 अन्य छोटे बड़े स्तूप हैं । एतिहासिक दृष्टिकोण से हमें पता है कि कलिंग युद्ध जोकि 261 ई० पू० सम्राट अशोक और कलिंग राजा पद्मनाभन के बीच हुआ था। इसी युद्ध के विजय के बाद सम्राट अशोक ने युद्ध में देखी त्रासदी से युद्ध का रास्ता त्यागकर बुद्ध का रास्ता अपना लिया। जिसके बाद सम्राट अशोक ने एक भी युद्ध नहीं किया और वह शांति प्रिय बन गए। इसी के बाद सम्राट अशोक ने अखंड भारत में 84,000 हजार बौद्ध स्तूपों को बनवाया था। क्योंकि उस समय तक भारत टुकड़ों में विभाजित नहीं था। जिनमें से एक महत्वपूर्ण स्तूप है, हमारा सांची का स्तूप।

जिसकी खोज सन 1818 में जर्नल टेलर के द्वारा की गई थी। जर्नल टेलर को यह स्तूप उस दौरान दिखा था, जब वह शिकार करने के लिए निकले थे। उस समय यह स्तूप जर्जर हालत में था। जिसका अग्रेजों के नेतृत्व में इसकी मरम्मत कर इसका पुनः निर्माण किया गया।

तोरणद्वार

स्तूप एक गुंबदाकार आकृति होती है, इस सांची के मुख्य प्रथम स्तूप में 4 तोरणद्वार बने हुए हैं ।असल में तोरणद्वार स्वागत करने के लिए बनवाए जाते थे। यह चारों तोरणद्वार चार रास्ते हैं जो स्तूप को सुशोभित करते हैं। सांची स्तूप में लगे तोरणद्वार अपने आप में बौद्ध इतिहास को समेटे हुए है। इनके शीर्ष पर पंख वाले शेर बने हुए हैं, जिनको गिरफिन सिंह भी कहा जाता है। जो दोनों ओर अपना मुंह किए हुए हैं और एक दूसरे को पीठ दिखाते हैं। इन पंख लगाए शेरों के बारे में हमने पौराणिक काल में पढ़ा है। जो शायद एक काल्पनिक रचनाएं हैं।

Stupa of Sanchi

इस तोरण पर महिला महावत के साक्ष्य मिलते हैं। जिसके द्वारा हमें यह समझने में आसानी होती है कि मौर्य काल में या बौद्ध काल में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चला करती थीं। इसके अलावा इस पर बकरे की सवारी के चित्र भी गढ़े हुए हैं।

स्तूप की बनावट और नक्काशी

स्तूप में भगवान बौद्ध की कई छोटी बड़ी मूर्तियां आज भी स्थापित हैं, और कई मूर्तियां खंडित भी हो चुकी हैं। इस स्तूप की नक्काशीदार बनाबट पर्यटकों का मन मोह लेती है। यहां पर्यटक देश से तो आते ही हैं, इसके अलावा विदेशी पर्यटकों की संख्या भी बहुत है। तोरणद्वार पर वह सभी दर्शाया गया है जो भगवान गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है। इस तोरणद्वार पर भगवान बुद्ध का जन्म, बौद्धिवृक्ष, धर्मोपदेश, ग्रह त्याग और अन्य घटनाएं जो भगवान बुद्ध के जीवन में घटी हैं।भगवान बुद्ध के कई उपदेश यहां पर गढ़े हुए हैं, जो की पाली भाषा में हैं। बुद्ध के कई उपदेश, जातक कथाएं पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में उद्रत हैं। जिसको 1838 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था

Stupa of Sanchi

इस स्तूप में तीन मुख्य स्तूप हैं। जिनमें दो स्तूप पास में हैं और एक अन्य स्तूप थोड़ी दूरी पर। पहला और तीसरा स्तूप एक दूसरे से कम दूरी पर हैं, लेकिन दूसरा स्तूप कुछ मीटर दूर है। दूसरे स्तूप में एक ही तोरणद्वार है, परंतु इसकी खास बात यह है कि इसमें दस वरिष्ठ गुरुओं की अस्थियां रखी हुई हैं। स्तूप के मुख्य प्रथम स्तूप में तोरणद्वार के बिल्कुल पास में एक अशोक स्तंभ खड़ा हुआ था। जो अब गिर चुका है कहा जाता है यह स्तूप एक जमींदार ने गन्ने पीसने की चक्की बनाने के लिए तोड़वा दिया था। स्तूप में एक तहग्रह है जहां आज भी भगवान बुद्ध की अस्थियां संभालकर रखी गई हैं। इस तहग्रह में जाना वर्जित है। इस तहग्रह की चाबी रायसेन कलेक्टर के पास होती है। इन अस्थियों के दर्शन आप नवंबर के महीने में कर सकते हैं, क्योंकि नवंबर के महीने में यहां मेला लगता है।

उस समय इस तहग्रह को खोल दिया जाता है। इस अस्थियों के संदूक को अस्ति मंजूषा कहा जाता है। इन अस्थियों को अंग्रेजों के समय में लंदन भेज दिया गया था। लेकिन वहां से इसे वापस लाया गया और यह आज सांची स्तूप में सुशोभित हैं। यह पूरा स्तूप बलुआ पत्थर से बना हुआ है। जिसको उदयगिरी से लाया जाता था, परंतु जो अशोक स्तंभ है उसका निर्माण मिर्जापुर से लाए गए पत्थर से किया गया था। जिसकी ऊंचाई 42 फीट थी। कहा जाता सांची सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र का ननिहाल था । सांची के स्तूप से सारी पुत्र मुद्गलाइन भी जुड़े हुए हैं।

विंध्य की पर्वत पर स्थित इस स्तूप की नीव सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ई० पू० रखी और उसने इसे ईंटो और मिट्टी से निर्मित करवाया था। जिसके बाद, मौर्य वंश के अन्य एक शासक अग्निमित्र द्वारा पत्थरों  से निर्मित करवाया गया। स्तूप के शीर्ष पर हार्निका बनी हुई है जो विश्व के सबसे ऊंचे पर्वत का प्रतीक है, गुंबदाकार स्तूप के अंदर एक कक्ष होता है, जहां पर अस्थियां रखी रखी हुई हैं।

कैसे पहुंचे साँची स्तूप

सांची पहुंचने के लिए भोपाल जोकि मध्यप्रदेश की राजधानी है, से आप टैक्सी या केब के द्वारा पहुंच सकते हैं। इसके अलावा रेल यात्रा कर भी आप यहां तक पहुंच सकते हैं। सांची का स्वयं का रेलवे स्टेशन सांची रेलवे स्टेशन है, जो देश के अन्य हिस्सों से भी जुड़ा हुआ है।

हवाई यात्रा के द्वारा आप सांची पहुंचना चाहते हैं तो, राजा भोज हवाई अड्डा यहां से सबसे निकटतम हवाई अड्डा है। चूंकि आप बस से यात्रा करना चाहते हैं तो सबसे नजदीक रायसेन बस स्टॉप के माध्यम से आप सांची की यात्रा कर सकते हैं।

खुलने का समय सुबह 6:00 बजे से शाम के 6:00 बजे तक है। घूमने का सबसे अच्छा समय सुबह या शाम का है। जिस समय आप बगैर धूप के इस पर्यटन स्थल का अच्छे से दौरा कर पाएंगे ।

Categories
Culture Destination Travel

झारखंड के प्रसिद्ध लोक नृत्य

1. रूफ नृत्य

रूफ नृत्य एक प्रकार का लोक नृत्य है जो भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, जैसे कि बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में प्रचलित है। इसका महत्व कुछ मुख्य कारणों पर आधारित है:

  1. संस्कृति और परंपरा का आईना: रूफ नृत्य एक अहम भाग है उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का। इसमे स्थिर लोगों के जीवन की अनेकता और उनकी परंपरा का प्रतिनिधत्व किया जाता है।
  2. भावनाओं का व्यक्तित्व: रूफ नृत्य के माध्यम से कहानियां, विचार और भावनाएं अभिव्यक्ति की जाती हैं। ये नृत्य एक प्रकार की व्यक्तित्व साधना भी है, जो मनुष्य और आत्मा को शुद्ध करने में सहायक होती है।
  3. सामाजिक एकता और समृद्धि की बुनियाद: रूफ नृत्य सामाजिक एकता और समृद्धि को बढ़ावा देता है। इस्मे लोग सामूहिक रूप से भाग लेते हैं और एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं, जिसका एक सहज भाव और एकता का महत्व बढ़ता है।
  4. प्रकृति से जुड़ाव और संबंध: रूफ नृत्य में अक्सर प्रकृति से जुड़े मोती, पौधों, और जानवरों के साथ खेला जाता है। इस लोगों का प्रकृति से जुड़ाव और उसके साथ सहयोग को बढ़ावा मिलता है।
  5. लोकप्रियता और परिवर्तन का माध्यम: रूफ नृत्य आज भी लोकप्रिय है और इसका महत्व बढ़ रहा है, खासकर युवा पीढ़ी में। इसके माध्यम से लोक कला और संस्कृति का महत्व समझा जा सकता है, जो आगे चल कर समाज में परिवर्तन ला सकता है।

रूफ नृत्य एक लोक संस्कृति का महत्तव पूर्ण अंग है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक, और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाता है। इसके प्रति सम्मान और उसकी सीमाओं को समझने का अवसर है, ताकि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का महत्व बरकरार रहे।

2. छौ नृत्य

छौ नृत्य एक प्रमुख लोक नृत्य है जो झारखंड, ओडिशा, और पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। यह नृत्य विशेषतः पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में प्रदर्शित होता है। छौ नृत्य एक प्राचीन नृत्य परंपरा का हिस्सा है, जिसे आमतौर पर युद्ध के समय की युद्धकला को दर्शाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है। यह नृत्य समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करता है और कलाकारों की दक्षता और शारीरिक क्षमता का प्रदर्शन करता है

छौ नृत्य में विभिन्न प्रकार के विशेष पहचान होती है, जैसे कि मुख्य रूप से तीन प्रकार के छौ नृत्य होते हैं:

  1. शास्त्रीय छौ: यह छौ नृत्य का शास्त्रीय रूप होता है और पुरुलिया क्षेत्र के समृद्ध नृत्य परंपरा का हिस्सा है। इसमें व्यायामिक और आत्मिक साधना की गई एक कठिन तकनीक होती है, जिसमें आसन, अभिनय, और संगीत का मिश्रण होता है।
  2. फॉल्क छौ: यह छौ नृत्य का लोकप्रिय और लोकगायन रूप होता है। इसमें लोग गायन, नृत्य, और अभिनय का आनंद लेते हैं और इसे सामाजिक और सांस्कृतिक अवसाद से बचाने का माध्यम माना जाता है।
  3. अंगना छौ: यह छौ नृत्य का अधिक परिवारिक और सामाजिक रूप होता है और इसे घरों के अंगनों में अन्य औरतों के साथ उत्सवों और त्योहारों के दौरान आमतौर पर प्रस्तुत किया जाता है।

छौ नृत्य के कलाकार विभिन्न आकारों और रंगों के भव्य परिधान पहनते हैं और अपने शारीरिक और वाणिज्यिक दक्षता का प्रदर्शन करते हैं। इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य दर्शकों को मनोरंजन करने के साथ-साथ उत्तेजित करना और सांस्कृतिक विरासत को बचाना है।

3. मुंडा नृत्य

मुंडा नृत्य झारखंड राज्य की मुख्यत: संगीत, नृत्य, और कला की परंपराओं में से एक है। यह नृत्य मुंडा समुदाय की संस्कृति और विरासत को प्रकट करता है और लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को मजबूत करता है। मुंडा नृत्य ध्वनि, रंग, और आंदोलन के साथ संगीतीय अभिव्यक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

मुंडा नृत्य की विशेषताएँ:

  1. ताल-ध्वनि: मुंडा नृत्य में ध्वनि का विशेष महत्व है। धोल, मृदंग, और ताल की मधुर आवाज नृत्य को जीवंत बनाती है।
  2. अभिनय और आंदोलन: मुंडा नृत्य में अभिनय और आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। नृत्यकार अपने आंदोलन और अभिनय के माध्यम से कथा को सुनाते हैं और दर्शकों को मनोरंजन करते हैं।
  3. रंगमंच की सजावट: मुंडा नृत्य में रंगमंच की सजावट भी महत्वपूर्ण है। अलग-अलग वस्त्र, मुकुट, और आभूषण नृत्य को रंगीन और आकर्षक बनाते हैं।
  4. समाजिक संदेश: मुंडा नृत्य के माध्यम से समाज में सामाजिक संदेश भी साझा किए जाते हैं। इस नृत्य के माध्यम से समुदाय की महत्वाकांक्षा, समृद्धि, और सामूहिक एकता का संदेश प्रस्तुत किया जाता है।
  5. परम्परागत मूल्यों का संरक्षण: मुंडा नृत्य विरासत के रूप में संरक्षित है और इसका लक्ष्य परंपरागत मूल्यों, संस्कृति, और इतिहास की रक्षा करना है।

मुंडा नृत्य एक समृद्ध और आकर्षक नृत्य परंपरा है जो झारखंड की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके माध्यम से समुदाय की भावनाएं, रिवाज, और संस्कृति को संजीवित किया जाता है और समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक सामर्थ्य को बढ़ाता है।

4. संथाली नृत्य

संथाली नृत्य झारखंड, ओडिशा, बंगाल, और बिहार के संथाल समुदाय की प्रमुख सांस्कृतिक पहचान है। यह नृत्य उनकी संस्कृति, त्योहार, और समाजिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे उनकी भौगोलिक परिस्थितियों, कृषि कार्यों, और समाज की विविधता से प्रेरित किया जाता है।

संथाली नृत्य की विशेषताएँ:

  1. ग्रामीण संगीत और नृत्य: संथाली नृत्य गांवों में आमतौर पर सम्पन्न होता है और इसमें गांव के संगीत और नृत्य की पारंपरिक भावनाओं का प्रदर्शन होता है। यहाँ पर अक्सर लोगों के व्यक्तिगत और समुदायिक उत्सवों के दौरान इसे प्रस्तुत किया जाता है।
  2. अभिनय का महत्व: संथाली नृत्य में अभिनय की विशेष महत्वता है। नृत्यकार अपने अभिनय के माध्यम से कथाओं, पुराने किस्सों, और लोक कहानियों को सुनाते हैं।
  3. परंपरागत वस्त्र और सजावट: संथाली नृत्य में अपने परंपरागत वस्त्रों और सजावट की खासियत है। नृत्यकार और नृत्यांगन में रंग-बिरंगे वस्त्रों और आभूषणों का उपयोग किया जाता है जो उनकी संस्कृति और परंपराओं को दर्शाते हैं।
  4. सांस्कृतिक सन्देश: संथाली नृत्य के माध्यम से समुदाय के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संदेश भी साझा किए जाते हैं। इसके माध्यम से लोगों को अपनी परंपरागत विचारधारा, समृद्धि, और सामाजिक एकता के महत्व का बोध किया जाता है।

संथाली नृत्य एक सांस्कृतिक धरोहर है जो समुदाय की भावनाओं, आदतों, और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। इसके माध्यम से लोगों को अपनी भूमिका और अद्भुतता को मान्यता दी जाती है और सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि की दिशा में प्रेरित किया जाता है।

5. डोमकाच नृत्य

डोमकाच नृत्य झारखंड का एक प्रमुख परंपरागत नृत्य है जो छोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों में प्रचलित है। यह नृत्य समुदाय की खुशी, उत्सव और अन्य समाजिक अवसरों पर नृत्य किया जाता है। डोमकाच नृत्य के अभिनय में ढोल, झांझ, ताल और गायन का महत्वपूर्ण योगदान होता है। नृत्य के माध्यम से लोग अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को उत्सव मनाते हैं और सामूहिक आनंद का अनुभव करते हैं। इस नृत्य के अभिनय में सामूहिकता, साहसिकता और उत्साह का प्रमुख संदेश होता है।

यह नृत्य झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है और समुदाय के लोगों के बीच एकता और सामरस्य को बढ़ावा देता है। डोमकाच नृत्य झारखंड के छोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस नृत्य का विशेषता समुदाय के व्यक्तित्व को समाहित करने में है। यह समुदाय की संस्कृति, परंपरा और भावनाओं को प्रकट करता है और उनकी आत्मा को उत्तेजित करता है। डोमकाच नृत्य का विशेष रूप विविधता और उत्साह के साथ सम्पन्न है। यह नृत्य समुदाय की जीवनशैली, किसानी उत्पादन, और समाजिक सम्पर्कों को दर्शाता है। इसके अभिनय में ध्वनि, ताल, और आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ढोल, झांझ, और बजाने वाले के माध्यम से विभिन्न रूपों में रंगीनता और विशेषता को प्रकट किया जाता है।

डोमकाच नृत्य आमतौर पर गाओं, मेलों, और समाजिक उत्सवों में प्रदर्शित किया जाता है। इसके अंतर्गत लोग अपनी खुशी, उत्साह, और सामूहिक भावनाओं का आनंद लेते हैं। इस नृत्य के माध्यम से लोग अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को संजीवनी देते हैं और एक-दूसरे के साथ नाते बनाते हैं। इसका प्रदर्शन न केवल सांस्कृतिक धरोहर को जिंदा रखता है बल्कि समुदाय को भी एकता, सामरस्य, और गर्व की भावना देता है।

6. पैका नृत्य

पैका नृत्य, झारखंड का एक प्रसिद्ध परंपरागत नृत्य है जो झारखंड के ओडिशा प्रदेश क्षेत्रों में प्रचलित है। इस नृत्य को मुख्य रूप से धाल और तलवारों के साथ प्रस्तुत किया जाता है, जो युद्ध और योद्धाओं की भावना को प्रकट करते हैं। पैका नृत्य में लोग विभिन्न प्रकार के अभिनय और आंदोलनों के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।

यह नृत्य युद्ध के समय के शौर्य और बलिदान की भावना को समर्थन करता है और उसे समृद्ध करता है।पैका नृत्य के अभिनय में विभिन्न आदिवासी सांस्कृतिक तत्वों को दिखाया जाता है और इसके माध्यम से समुदाय की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजीवनी दिया जाता है। यह नृत्य समुदाय की आत्मविश्वास और गर्व की भावना को बढ़ाता है और उसे अपनी पहचान में मजबूती देता है। पैका नृत्य झारखंड का ओडिशा प्रदेश क्षेत्रों में प्रचलित है, खासकर पश्चिमी ओडिशा के मध्य और उत्तर-पश्चिम भागों में। इस नृत्य का मुख्य उद्देश्य युद्ध की भावना को प्रकट करना है। पैका नृत्य के अभिनय में धाल और तलवार का प्रमुख उपयोग होता है। यह नृत्य विभिन्न आदिवासी समुदायों के लोगों के बीच बहुत पसंद किया जाता है और समाज में अहम भूमिका निभाता है।

यह नृत्य अक्सर विभिन्न पर्वों, मेलों और समाजिक आयोजनों में प्रदर्शित किया जाता है, जहां लोग इसका आनंद लेते हैं और अपने समुदाय के इतिहास, संस्कृति और विरासत को मानते हैं। पैका नृत्य एक महत्वपूर्ण भाग है झारखंड और ओडिशा की सांस्कृतिक विरासत का, जो समुदाय के लोगों के बीच सामर्थ्य, सामरस्य और एकता की भावना को बढ़ावा देता है।

7. कर्मा नृत्य

कर्मा नृत्य झारखंड की जनजातीय समुदायों में प्रचलित एक प्रसिद्ध परंपरागत नृत्य है। यह नृत्य विशेषतः कर्मा पर्व के मौके पर प्रस्तुत किया जाता है, जो छठी पूजा के बाद मनाया जाता है। कर्मा पर्व झारखंड, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाता है। कर्मा नृत्य में लोग गाने-नृत्य के माध्यम से अपनी प्रकृति पूजा करते हैं और भगवान की कृपा और आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं।

इस नृत्य में ध्वनि, ताल, और आंदोलन के रूप में भी विभिन्नता होती है। कर्मा नृत्य के दौरान, लोग नृत्य के रूप में अपने परंपरागत गानों का आनंद लेते हैं और उनकी संगीत और नृत्य से उत्सव की भावना को अभिव्यक्त करते हैं। यह नृत्य सामुदायिक सामरस्य को बढ़ावा देता है और लोगों के बीच एकता और समरस्थता की भावना को स्थापित करता है। कर्मा नृत्य झारखंड, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से मनाया जाता है। यह नृत्य विशेषतः कर्मा पर्व के मौके पर प्रस्तुत किया जाता है, जो साधारणत: अक्टूबर-नवंबर महीने में छठी पूजा के बाद मनाया जाता है।

कर्मा नृत्य का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखना है और मानव जीवन के प्रति आभावना को जीवंत रखना है। इस नृत्य में गाने-नृत्य के माध्यम से लोग अपनी प्रकृति पूजा करते हैं और अपनी प्रकृति से संबंधित आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं। कर्मा नृत्य के दौरान, लोग विभिन्न प्रकार के गीत गाते हैं और विभिन्न नृत्य आंदोलनों का आनंद लेते हैं। यह नृत्य लोगों के बीच सामाजिक समरस्थता, समृद्धि, और खुशहाली की भावना को उत्तेजित करता है और समुदाय के अनुभवों और आदिवासी संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इस नृत्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है लोक कला और सांस्कृतिक विरासत का।

Categories
Culture Destination Travel

जानिए क्या खास है मध्य प्रदेश के इन बेहद खूबसूरत लोकनृत्यों में

मध्य प्रदेश को अगर प्राकृतिक रूप से भारत का सबसे सम्पन्न राज्य कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। लेकिन ये राज्य सिर्फ प्राकृतिक रूप से परिपूर्ण नहीं है, बल्कि इस राज्य में सांस्कृतिक धरोहरों की भी कमी नहीं है और उन्हीं सांस्कृतिक धरोहरों में से एक हैं यहाँ के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रदर्शित किए जाने वाले लोक नृत्य। मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत में नृत्यों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ के नृत्य उन्हीं संस्कृति को दर्शाते हैं जो इस क्षेत्र की विविधता और समृद्धि को प्रकट करती है। लोकनृत्यों के माध्यम से लोग अपनी परंपराओं, संस्कृति और इतिहास को बयां करते हैं, जबकि क्लासिकल डांस की शैलियाँ (Folk Dances of Madhya Pradesh) इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करती हैं और समृद्धि में योगदान करती हैं।

Folk Dances of Madhya Pradesh
Folk Dances of Madhya Pradesh

कर्मा नृत्य मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र का प्रमुख लोक नृत्य है। यह नृत्य छत्तीसगढ़ के बास्तर क्षेत्र के आदिवासी समुदायों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कर्मा नृत्य का उद्देश्य समृद्धि और खुशहाली की प्रार्थना करना होता है। इस नृत्य में, समूह में स्त्रियाँ एक साथ एक प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी होती हैं और फिर वे उच्च स्थान पर जाती हैं। वहाँ, वे धार्मिक गानों के साथ अपने शरीर के विभिन्न भागों को हल्के-फुल्के नृत्य के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस नृत्य का महत्वपूर्ण अंग है “मदुआ” या अपने संगीतीय साथियों के साथ जुड़ना, जिससे एक गर्मियों की रात का महत्व और समर्थन होता है। यह नृत्य सामाजिक सम्बंधों को मजबूत करने और समूचे समुदाय की एकता को प्रदर्शित करने का अद्वितीय तरीका है

Folk Dances of Madhya Pradesh
Folk Dances of Madhya Pradesh

भगोरिया नृत्य मध्य प्रदेश के नमकनिर्मित इलाकों में प्रचलित एक प्रमुख लोक नृत्य है। यह नृत्य भागोरिया त्योहार के दौरान प्रदर्शित किया जाता है, जो कि आमतौर पर फरवरी और मार्च महीने में मनाया जाता है। यह नृत्य विवाह संस्कार के महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, जिसमें युवक और युवतियाँ एक-दूसरे के संग नृत्य करते हैं और उनका चयन करते हैं। भगोरिया त्योहार के दौरान, युवक और युवतियों को अपने पसंदीदा संगीत के साथ एक-दूसरे के साथ नृत्य करते देखा जाता है। इस नृत्य के दौरान, उनके परिवार और समुदाय के लोग उन्हें आशीर्वाद देते हैं और उनकी नई ज़िन्दगी के लिए उत्साहित करते हैं। भगोरिया नृत्य में समुदाय की सामाजिक और सांस्कृतिक भावनाओं का प्रदर्शन होता है, जो उनके सामुदायिक बंधनों को मजबूत करता है। इस नृत्य के माध्यम से समुदाय के सदस्य अपनी संख्या को बढ़ाते हैं और समुदाय के विकास और समृद्धि में योगदान करते हैं।

Folk Dances of Madhya Pradesh
Categories
Culture Lifestyle Rajasthan Travel

राजस्थान की संस्कृति को बखूबी दर्शाते हैं यहां के प्रसिद्ध पारंपरिक लोक नृत्य

राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत में नृत्यों का विशेष स्थान है। यहां कई प्रकार के नृत्य प्रथमित हैं, जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक धाराओं को प्रकट करते हैं। राजस्थानी नृत्य गायन, नृत्य और वाद्य का एक मेल है और इसका महत्वपूर्ण भूमिका भजन, कथा, और इतिहास में होता है।

घूमर:

यह एक प्रसिद्ध राजस्थानी नृत्य है जो महिलाओं द्वारा उत्सवों और विशेष परिस्थितियों में प्रदर्शित किया जाता है। यह नृत्य राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। घूमर एक प्रसिद्ध राजस्थानी नृत्य है जो महिलाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यह नृत्य राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे विभिन्न उत्सवों और पर्वों में उत्साह के साथ प्रस्तुत किया जाता है। घूमर के विशेषताएँ उसके गतिशीलता, सज धज, और पल्लू की गति हैं। इस नृत्य में महिलाएं छाती और मैदान में घूमती हैं, अपने पल्लू को गाथा गाते हुए अलग-अलग आकृतियों में फैलाते हैं। यह नृत्य लोक गीतों के साथ संगत होता है और इसमें संतुलन, गति, और आकर्षण होता है। घूमर का प्रदर्शन अधिकतर विवाह, तीज, और अन्य पर्वों में किया जाता है। इस नृत्य के माध्यम से महिलाएं अपनी आत्मा को व्यक्त करती हैं और समृद्धि की कामना करती हैं। घूमर का प्रदर्शन दर्शकों को मनोहारी अनुभव प्रदान करता है और राजस्थानी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करता है।

कठपुतली:

यह एक अन्य प्रसिद्ध राजस्थानी नृत्य है जो कथपुतली के साथ किया जाता है। इसमें पुतली भटकते हुए दिखाई देती हैं और वे विभिन्न किरदारों को प्रस्तुत करती हैं। यह एक रंगबज और आकर्षक नृत्य है जो दर्शकों को मनोरंजन करता है। कठपुतली नृत्य एक प्रसिद्ध राजस्थानी नृत्य है जो कठपुतली (पुतले) के साथ प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्य का प्रमुख लक्ष्य कथाओं और किरदारों को प्रस्तुत करना होता है। कठपुतली नृत्य के प्रमुख कलाकार पुतली कलाकार होते हैं, जो विभिन्न रंगमंच पर पुतलियों को बेहद कुशलता से गतिशीलता से गति देते हैं। इन पुतलियों के माध्यम से किरदारों की भूमिकाओं को दर्शाने के लिए कहानी को संबोधित किया जाता है। कठपुतली नृत्य के दौरान, पुतली कलाकार विभिन्न भावनाओं, भूमिकाओं, और किरदारों को प्रस्तुत करते हैं। वे विभिन्न गीतों, संगीत, और लहजों के साथ पुतलियों को हिलाते हैं और किरदारों की भूमिकाओं को विशेषता से दिखाते हैं। कठपुतली नृत्य न केवल मनोरंजन के लिए होता है, बल्कि इसका महत्वपूर्ण भूमिका होती है राजस्थानी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखने में। इस नृत्य के माध्यम से कथाएं, किरदारों, और लोक कथाओं को जीवंत किया जाता है और संदेशों को दर्शकों तक पहुंचाया जाता है।

भोपा:

यह नृत्य पश्चिमी राजस्थान में प्रसिद्ध है और इसमें भोपाओं की बहुत ही गतिशील नृत्यार्मिकता होती है। इसमें छलकाव, नृत्य, और साहित्य का एक सामंजस्य होता है। भोपा नृत्य राजस्थान का एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो पश्चिमी राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में प्रचलित है। इस नृत्य का मुख्य उद्देश्य धारावाहिक रूप से किसी अद्भुत कथा का प्रस्तुत करना होता है। भोपा नृत्य में कलाकार अपने शारीरिक और भावात्मक कौशल का प्रदर्शन करते हैं। इस नृत्य के कलाकार अपने गतिशील और चुस्त नृत्य से दर्शकों को प्रभावित करते हैं। भोपा नृत्य के प्रमुख लक्षण में अंगों की गतिशीलता, उच्चारण, और रंगमंच पर भावनात्मक प्रस्तुति शामिल होती है। इस नृत्य का मुख्य अंश भाषण (मुखवाद्य), नृत्य, और गाना होता है। भोपा नृत्य के द्वारा विभिन्न कथाएं, किस्से, और लोक कहानियाँ प्रस्तुत की जाती हैं जो राजस्थानी संस्कृति और धार्मिक विचारों को प्रकट करती हैं। भोपा नृत्य राजस्थानी सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका प्रदर्शन राजस्थान के लोगों के बीच उत्साह और गर्व का स्रोत बनता है।

कच्छी घोड़ी:

यह नृत्य लोक गीतों के साथ किया जाता है और इसमें कच्ची घोड़ी की नकल की जाती है। इसमें नृत्यार्मिकता और सटीकता की आवश्यकता होती है जो इसे बेहद रोमांचक बनाती है। कच्छी घोड़ी एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो राजस्थान के लोगों के बीच बहुत पसंद किया जाता है। इस नृत्य में कलाकार घोड़े की तरह कपड़े पहनते हैं और एक झूले पर बैठे होते हैं। साथ ही साथ, संगीत बजता है और कलाकार विभिन्न कहानियों को नृत्य के माध्यम से दिखाते हैं। इसमें तेज़ और आनंददायक गतियाँ होती हैं, जो दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करती हैं। यह नृत्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह राजस्थानी संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। उत्साही संगीत के साथ, जिसमें ढोलक, हारमोनियम, और नगाड़ा (केतल ढोल) जैसे पारंपरिक राजस्थानी लोक वाद्य शामिल होते हैं, कलाकारों द्वारा स्थानीय लोक कथाओं, पौराणिक कथाओं, या ऐतिहासिक घटनाओं के विभिन्न प्रसंगों का अभिनय किया जाता है। यह एक कहानी सुनाने का एक साधन भी है, जो राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को प्रतिबिंबित करती है।

भवाई:

यह राजस्थान का एक अन्य प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जो कहानियों के माध्यम से किया जाता है। इसमें कलाकारों के बीच मॉक लड़ाइयाँ और कॉमेडी देखने को मिलती है। भवाई नृत्य राजस्थानी सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह किसानों की जीवनशैली, परंपरा, और समाज की भावनाओं को प्रकट करता है। इसके अलावा, भवाई नृत्य के माध्यम से राजस्थानी समाज की विभिन्न पहलुओं को समझाया जाता है। यह नृत्य सम्पूर्ण अभिनय, संगीत, और नृत्य की संगति में एक अद्वितीय अनुभव प्रदान करता है। भवाई नृत्य में कलाकार कथा के आधार पर विभिन्न भूमिकाओं में अभिनय करते हैं। इस नृत्य की विशेषता यह है कि कलाकारों के बीच मॉक लड़ाइयाँ, हास्य और दर्शकों के साथ संवाद भी होते हैं। कलाकार बाजार, मेले और अन्य सामाजिक आयोजनों में इस नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। भवाई नृत्य का परिधान और संगीत भी बहुत विशेष होता है। कलाकार विशेष रूप से विविध और रंगीन परिधान पहनते हैं जो उनके विभिन्न भूमिकाओं को प्रतिनिधित करते हैं। इसके साथ ही, भवाई नृत्य के लिए गीत और ताल का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है जो किसानों की जीवनशैली, सामाजिक संस्कृति और वास्तविकताओं को प्रकट करता है।

कलबेलिया:

यह नृत्य राजस्थान की कलबेलिया समुदाय के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इसमें उच्च गति के नृत्य, शानदार परिधान और धार्मिक तत्त्व होते हैं। कलबेलिया एक प्रसिद्ध राजस्थानी लोक नृत्य है जो कलबेलिया समुदाय के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यह नृत्य गुज्जर जाति के लोगों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, जो पश्चिमी राजस्थान के जिलों में बसे हुए हैं। कलबेलिया नृत्य का विशेषता यह है कि इसमें कलाकार उच्च गति और चमकदार अभिनय के साथ लड़कियों के बीच खिलखिलाते हुए नृत्य करते हैं। इस नृत्य का मुख्य उद्देश्य प्रेम और सौंदर्य की महत्ता को दर्शाना है। कलबेलिया नृत्य में कलाकारों के परिधान और आभूषण बहुत ध्यान दिया जाता है। वे विशेष रूप से रंगीन और आकर्षक परिधान पहनते हैं, जो उनके नृत्य को और भी चमकदार बनाते हैं। कलबेलिया नृत्य के माध्यम से गुज्जर समुदाय की विविधता, उनके संगीत, संस्कृति, और पारंपरिक जीवन का उत्कृष्ट प्रतिनिधित्व किया जाता है। यह नृत्य राजस्थान की रमणीयता और समृद्धि का प्रतीक है और लोगों को उसकी सांस्कृतिक विरासत का अनुभव कराता है।

Categories
Destination Himachal Pradesh Travel Uttarakhand

किसी का भी दिल चुरा सकते हैं हिमालयन रेंज के ये खूबसूरत ट्रेक

यह ट्रेक नेपाल का सबसे प्रसिद्ध और खूबसूरत ट्रेक है, जो दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़, माउंट एवरेस्ट के नजदीक स्थित है। यह ट्रेक एडवेंचरर्स और पहाड़ प्रेमियों के लिए एक सपनों का सफर है, जिसमें उन्हें हिमालयन रेंज की अद्भुद प्राकृतिक माहौल को एक्सपीरियंस करने का अवसर मिलता है। इस ट्रेक की शुरुआत काठमांडू (नेपाल की राजधानी), से होती है। यहाँ से, ट्रेकिंग ग्रुप्स लुकला या फापलू हवाई अड्डे तक उड़ान भर कर जाते हैं, जो ट्रेक का प्रारंभिक बिंदु होता है।
इस खूबसूरत से सफर के दौरान, यात्री लुकला या फापलू से नाम्चे बाजार, खुमजुंग, तेंगबोचे, डिंगबोचे, लोबुचे, गोरक शेप तक पहुंचते हैं, और अंत में एवरेस्ट बेस कैम्प तक जाते हैं। यह ट्रेक लगभग 12-14 दिनों तक का होता है, जिसमें दुर्लभ दृश्यों को देखने का अवसर होता है। आप इस ट्रेक में ढेर सारे अनएक्सपेक्टेड व्यूज को एक्सपीरियंस करने वाले हैं। जैसे कि नाम्चे बाजार का विशेष सौंदर्य, तेंगबोचे मोनास्ट्री का शांत वातावरण, एवरेस्ट, ल्होत्से, नुप्से, अमा डब्लम, र अन्नपूर्ण हिमालय पर्वत श्रेणियों का दर्शन। यह ट्रेक देखने में जितना खूबसूरत है उतना ही मुश्किल भी है। EBC ट्रेक की एक प्रमुख चुनौती है उसकी ऊँचाई। इस ट्रेक पर आप नेपाली शेर्पा समुदाय की संस्कृति और परंपराओं को अच्छे से एक्स्प्लोर है। यात्री नाम्चे बाजार और अन्य गांवों में स्थित गोम्पास और ध्यान केंद्रों को भी देखते हैं। एवरेस्ट बेस कैम्प पहुंचने पर यात्रियों को जो एक्सपीरियंस होता है उसको जो शब्दों में बयां करना मुश्किल है। यह एक ऊँचा पहाड़ों का मैदान है, जहाँ से एवरेस्ट की शिखर दर्शन करने का अवसर मिलता है और माउंट एवरेस्ट के समीप जाकर उसकी प्रतिष्ठा को महसूस किया जा सकता है। एवरेस्ट बेस कैम्प ट्रेक, अनुभवों का खजाना है, अगर आपने इसे एक्सपीरियंस कर लिया तो यह आपको को जिंदगी भर याद रहेगा

यह नेपाल का एक लोकप्रिय और रोमांचक ट्रेक है, जो अन्नपूर्णा हिमालय की प्राचीन श्रृंगारी और उसके चारों ओर घूमता है। यह ट्रेक एडवेंचरर्स के लिए एक अनूठा अनुभव प्रदान करता है, जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य, स्थलीय संस्कृति, और चुनौतियों से भरी यात्रा होती है। यह ट्रेक आमतौर पर लगभग 15-20 दिनों का होता है और यह ट्रेक जगह-जगह से शुरू हो सकता है, लेकिन यह आमतौर पर बेसिस भुलभुलैया या जगताप गाँव से शुरू होता है और फिर अन्नपूर्णा रेंज के चारों ओर घूमता है, जिसमें मुख्य गाँवों में मुक्तिनाथ, मानांग, तिलिचो, चम्जोंग, और पोखरा शामिल हैं। यह ट्रेक नेपाल की सबसे बड़ी हिमालयी श्रृंखलाओं के चारों ओर से गुजरता है और यात्रियों को अनेक प्राकृतिक दृश्यों का अनुभव कराता है, जैसे कि हिमनद झरने, श्वेता नदी के तट, उच्च पर्वतीय झीलें, और खेत। यह ट्रेक स्थानीय गाँवों में रहने और उनकी संस्कृति को जानने का अवसर प्रदान करता है। यात्री यहाँ पर नेपाली शेर्पा, मागर, रा लिम्बू समुदायों के साथ अन्य स्थानीय लोगों से मिल सकते हैं। यह ट्रेक ऊँचाइयों, पर्वतीय मौसम की अनियमितता, और दूसरी परिस्थितियों की चुनौतियों से भरा होता है, जिसमें विशेषकर ठंड, ऊँचे धारों के पार जाना, और खासकर अन्नपूर्णा पास से गुजरना शामिल है। अन्नपूर्णा सर्किट ट्रेक एक अनुभवों भरा सफर है जो यात्रियों को नेपाल के हिमालय का सच्चा अनुभव करने का अवसर देता है।

लांगतांग घाटी ट्रेक नेपाल का एक प्रमुख और प्रिय ट्रेक है जो हिमालय के दर्शनीय सुंदर पर्वत श्रेणी में स्थित है। यह ट्रेक हिमालय के समीप स्थित लांगतांग घाटी के मध्य से गुजरता है और यात्रियों को प्राकृतिक सौंदर्य, स्थानीय संस्कृति और एक शांतिपूर्ण वातावरण का अनुभव कराता है। लांगतांग घाटी ट्रेक नेपाल के लांगतांग राष्ट्रीय उद्यान में स्थित है। ट्रेक की शुरुआत सिरोंग, धुनचे, और श्याब्रु बाजार से होती है और फिर यात्रा लांगतांग घाटी के माध्यम से गुजरती है, जिसमें बीउ, लांगटांग, और क्यांजीनजुंगा घाटी शामिल हैं। यह ट्रेक यात्रियों को हिमालय के अद्भुत पहाड़ियों के बीच से गुजरता है, जिनमें सफेद गंधर्व, श्रीकन्थ, गंधर्वधर, और लांगटांग हिमश्रृंग देखने को हैं। इसके अलावा, यहाँ स्थानीय वन्य जीवन का भी अनुभव किया जा सकता है। यहाँ यात्री स्थानीय गांवों में रुक सकते हैं और उनके साथ रहकर उनके दिनचर्या में शामिल हो सकते हैं। ट्रेक के दौरान यात्री स्थाई ऊँचाई, ठंड, और अनुयायियों के साथ मिलजुलकर चुनौतियों का सामना करते हैं। स्थानीय मौसम के अनियमित परिवर्तन भी यात्रियों के लिए एक परिचित चुनौती हो सकते हैं। लांगतांग घाटी ट्रेक एक शांतिपूर्ण और रोमांचक यात्रा है जो हिमालय के असीमित सौंदर्य और स्थानीय संस्कृति को एक्सप्लोर करने का अवसर देती है।

रूपकुंड ट्रेक उत्तराखंड, भारत में स्थित है और यह एक प्रसिद्ध और आकर्षक पर्वतीय ट्रेक है जो यात्रियों को रूपकुंड झील तक ले जाता है। यह ट्रेक रोमांचक और मनोरम दृश्यों के साथ पूरी तरह से भरा हुआ है। रूपकुंड ट्रेक उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है। ट्रेक की शुरुआत मुंडली गाँव से होती है और फिर यात्रा रूपकुंड झील तक जाती है, जो एक प्राकृतिक झील है जिसका पानी शानदार नीला होता है। ये जगह आपको बिलकुल किसी जन्नत जैसी लगेगी। यह ट्रेक यात्रियों को हिमालय के सुंदर दृश्यों का अनुभव कराता है, जिनमें सुन्दर प्राकृतिक प्रदर्शनी, वन्य जीवन, और उच्च पर्वतीय गाँवों का आनंद लेना शामिल है।
ट्रेक के दौरान यात्री स्थानीय गाँवों के अत्यधिक आकर्षक स्थलों को देख सकते हैं और स्थानीय लोगों की संस्कृति को समझ सकते हैं। ट्रेक के दौरान, यात्री ऊँचाइयों, ठंड, और खुद की जरूरतों के लिए सामग्री के साथ मुसीबतों का सामना करते हैं। स्थानीय मौसम के अनियमित परिवर्तन भी यात्रियों के लिए एक चुनौती हो सकते हैं। रूपकुंड ट्रेक एक शांतिपूर्ण और प्राकृतिक ट्रेक है जो यात्रियों को खुद को डिस्कवर करने का देता है।

कंचनजंघा बेस कैम्प ट्रेक एक प्रसिद्ध और उत्कृष्ट पर्वतीय ट्रेक है जो सिक्किम, भारत में स्थित है। यह ट्रेक पूरे विश्व में पर्वतारोहण के लिए लोकप्रिय है, जिसमें यात्री कंगचेंजंगा पर्वत के नजदीक बेस कैम्प तक पहुंचते हैं। कंचनजंघा बेस कैम्प ट्रेक की शुरुआत युक्सोम गाँव से होती है, जो सिक्किम के पश्चिमी हिस्से में स्थित है। ट्रेक के दौरान, यात्री भगिन्तग रेंज के पार कंगचेंजंगा बेस कैम्प तक पहुंचते हैं। यह ट्रेक यात्रियों को स्थानीय प्राकृतिक सौंदर्य, वन्य जीवन, और पर्वतीय दृश्यों का अनुभव कराता है। यात्री कंचनजंघा पर्वत के मनोरम दृश्य का आनंद लेते हैं। कंचनजंघा ट्रेक के दौरान, यात्री स्थानीय सिक्किमी और भूटिया संस्कृति का अनुभव कर सकते हैं। वे स्थानीय गांवों में रुक सकते हैं और स्थानीय लोगों के साथ संवाद कर सकते हैं। यह ट्रेक उच्चतम ऊँचाई में चलता है, और अक्सर मौसम की अनियमितता का सामना करना पड़ता है। यात्री को ऊँचाइयों के अनुकूल तैयार होना चाहिए। कंचनजंघा बेस कैम्प ट्रेक एक रोमांचक और अनुभव समृद्ध यात्रा है जो यात्रियों को प्राकृतिक सौंदर्य और पर्वतीय अनुभव का आनंद देता है।(Trecking Destinations of Himalayas)

Categories
Culture Lifestyle Travel Uttar Pradesh

सिर्फ कत्थक ही नहीं और भी कई प्रकार के नृत्य कलाओं का उद्गम स्थल है उत्तर प्रदेश

कथक भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में से एक है, जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ और वाराणसी क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। यह नृत्य अपनी गहरी गाहक के साथ कहानी का प्रस्तुतिकरण करता है और इसमें ताल, तालिका, भाव, अभिनय, और तकनीकी पहलुओं का मिश्रण होता है। कथक का इतिहास बहुत पुराना है और इसे मुग़ल शासकों के दरबारों में विकसित किया गया था। इसका नाम “कथा” (कहानी) और “कथा वाचन” (कहानी का पाठ) से आया है, क्योंकि यह नृत्य कहानी का प्रस्तुतिकरण करता है।

कथक के विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

गहरा भावनात्मक संवाद: कथक में भाव का महत्वपूर्ण स्थान है। नृत्यांग (दिल, हृदय) के माध्यम से नायक-नायिका के भावों का प्रस्तुतिकरण किया जाता है।

ताल, तालिका, और लय: कथक में ताल, तालिका (बोल) और लय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ये सभी तत्व एक सही तरीके से प्रदर्शित किए जाते हैं और उन्हें सही समय पर और सही ढंग से उपयोग किया जाता है।

चौक, तारीक, अमाद, अवर्तन: कथक के लिए चार प्रमुख नृत्यांग होते हैं – चौक, तारीक, अमाद, और अवर्तन। इन्हें प्रकट करने के लिए विभिन्न तकनीकी चालें और पद्धतियाँ होती हैं।

अभिनय: कथक में अभिनय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नृत्य के माध्यम से भाव, भावनाएँ, और कहानी का प्रस्तुतिकरण किया जाता है।

तकनीकी पहलू: कथक में तकनीकी पहलू का महत्वपूर्ण स्थान है। यह नृत्य की गतिशीलता, तरलता, और समता को संरक्षित करता है।

    कथक एक बहुत ही सुंदर, गहरा, और उत्तेजक नृत्य है जो भारतीय सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों, धार्मिक पाठ्यक्रमों, और समारोहों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कथक नृत्य कई सामाजिक और राजनीतिक संदेशों को बताता है। इसके माध्यम से जाति, धर्म, और समाज के महत्वपूर्ण मुद्दे उजागर किए जाते हैं। कथक नृत्य को आधुनिक संगीत, चित्रकला, और टेक्नोलॉजी के साथ मिलाकर नवीनता और उत्थान में मदद मिलती है, जिससे यह आधुनिक युग में भी आधिकारिक रूप से महत्वपूर्ण रहता है। कथक नृत्य न केवल एक कला है, बल्कि एक धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक अनुभव का सदुपयोग करने का एक माध्यम भी है। इसका महत्व उसकी गंभीरता और उदारता में निहित है, जो भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर का हिस्सा बनाता है।

    रासलीला एक प्रसिद्ध पारंपरिक नृत्य शैली है जो भगवान कृष्ण और उनकी प्रिय गोपियों के प्रेम की कथा को दर्शाता है। इस नृत्य के माध्यम से, लोग भगवान कृष्ण की लीलाओं को याद करते हैं और उनके प्रेम के रस का आनंद लेते हैं।

    रासलीला के बारे में विस्तार से जानकारी:

    कथा: रासलीला का मुख्य विषय भगवान कृष्ण की ब्रज की गोपियों के साथ रास लीला है। इसमें भगवान कृष्ण गोपियों के साथ गोपिका वस्त्राहरण, माखन चोरी, गोपियों के साथ गोपीका हरण आदि के लीलाओं का नृत्य किया जाता है।

    अभिनय: रासलीला में अभिनय की बड़ी महत्वपूर्णता होती है। नृत्यांगों के माध्यम से कथा के विभिन्न पलों का अभिनय किया जाता है।

    रस: यह नृत्य रस के महत्व को प्रकट करता है। गोपियों के प्रेम और भगवान कृष्ण के साथ उनकी भावनाओं को प्रस्तुत करने के माध्यम से, इस नृत्य में भक्ति और प्रेम का अभिव्यक्ति किया जाता है।

    संगीत: रासलीला के नृत्य के साथ-साथ संगीत भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। श्रीकृष्ण की लीलाओं को संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।

    परंपरा: रासलीला का अंदाज़ और परंपरा भारतीय सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हर्षोत्सवों और विशेष अवसरों पर खास रूप से प्रदर्शित किया जाता है।

      रासलीला एक सुंदर और प्रसिद्ध नृत्य शैली है जो भारतीय संस्कृति के अनमोल भाग को प्रस्तुत करता है। रासलीला नृत्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का महत्वपूर्ण प्रस्तुतिकरण है और इसका मुख्य उद्देश्य धार्मिक भावनाओं को संबोधित करना है। यह हिन्दू धर्म में भक्ति और प्रेम का प्रतीक है। रासलीला नृत्य कलात्मक रूप से भी महत्वपूर्ण है, जो नृत्य कला के उदात्ततम रूपों में से एक है। इसमें गायन, नृत्य, और अभिनय का सहयोग होता है और एक साहित्यिक कहानी का अद्वितीय रूपांतरण किया जाता है। रासलीला नृत्य के द्वारा समाज में एकता, सहयोग और सामूहिक भावनाओं को प्रोत्साहित किया जाता है। इसका प्रयोग सामाजिक समूहों के साथ बोंडिंग के लिए भी किया जाता है। रासलीला नृत्य भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और इसका महत्व विभिन्न आयामों में है। यह प्रक्रिया महाभारत और भागवत पुराण की अद्वितीय कहानी “कृष्ण लीला” से प्रेरित है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया गया है।

      ठुमरी एक उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायन प्रणाली है, जो अधिकतर उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के साथ जुड़ी हुई है। इसे अवधी भाषा में गाया जाता है और इसमें प्रेम, विरह, लोभ, और भक्ति जैसे विविध भावों का अभिव्यक्ति किया जाता है।

      ठुमरी के विशेषताएँ:

      गायन शैली: ठुमरी का गायन संगीत की लयबद्धता और भावपूर्णता को ध्यान में रखता है। इसमें आवाज की मधुरता और अभिनय की विशेषता होती है।

      भावप्रद गान: ठुमरी गाने में भावप्रदता को महत्व दिया जाता है। गायक अपनी आवाज़ के माध्यम से विविध भावों को प्रकट करता है, जो सुनने वालों के दिलों को छू लेते हैं।

      गायन तत्व: ठुमरी में विभिन्न संगीत तत्वों का समाहार होता है, जैसे कि ताल, लय, स्वर, और राग। गायन के माध्यम से भावनाओं का संवेदनशील अभिव्यक्ति किया जाता है।

      कहानी की भावना: ठुमरी गानों में कहानी की भावना को बहुत महत्व दिया जाता है। गायक अपनी आवाज़ के माध्यम से कहानी के प्रमुख अंशों को दर्शाता है और सुनने वालों को भावनाओं में ले जाता है।

      संगीतीय सामग्री: ठुमरी में संगीतीय सामग्री के रूप में ताल, ताल, मेलोडी, और बोलों का प्रयोग होता है, जिससे गायन का संवेदनशीलता बढ़ती है।

        ठुमरी एक सुंदर और भावनात्मक गायन प्रणाली है जो उत्तर भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके माध्यम से, लोग भावनाओं को व्यक्त करते हैं और संगीत के साथ भावनाओं को साझा करते हैं। यह नृत्य गंगा-यमुना की सांस्कृतिक संख्या और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है और उत्तर भारतीय नृत्य की एक महत्वपूर्ण शाखा है। ठुमरी नृत्य एक सार्वजनिक आयोजन होता है जो लोगों को विभिन्न सांस्कृतिक अनुभवों के लिए एक साथ लाता है और कला के प्रशंसकों के बीच संचार को बढ़ावा देता है। ठुमरी नृत्य भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका संरक्षण और प्रसारण किया जाता है। यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने में मदद करता है। ठुमरी नृत्य का महत्व उसकी रमणीयता, भावपूर्णता, और संगीतीयता में है जो लोगों को आकर्षित करता है और उन्हें संगीत और नृत्य के रस का आनंद दिलाता है।

        चरकुला नृत्य उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र का प्रमुख नृत्य है, जो ब्रज के गांवों में खासकर प्रदर्शित किया जाता है। यह नृत्य प्रस्तुतिकरण का एक अनूठा और रंगीन तरीका है, जिसमें एक बड़े आकर्षक लकड़ी का पात्र (चरकुला) सिर पर बालंस करते हुए विभिन्न गतिमय नृत्य किया जाता है।

        चरकुला नृत्य के विशेषताएँ:

        चरकुला प्रदर्शन: चरकुला नृत्य का मुख्य अंग चरकुला है, जो एक बड़े लकड़ी के पात्र को सिर पर बालंस करते हुए नृत्य किया जाता है। इसमें नृत्यारंगों का अभ्यास और स्थैतिक नृत्य शामिल होता है।

        गीत और संगीत: चरकुला नृत्य के दौरान, चरकुला नृत्यकार और संगीतकार द्वारा प्रस्तुत गाने और संगीत का महत्वपूर्ण भूमिका होता है। ये गीत और संगीत अधिकतर भगवान कृष्ण की लीलाओं और गोपियों के प्रेम को स्तुति करते हैं।

        रंगबज़ारी: चरकुला नृत्य के दौरान, अक्सर गांव के लोगों के सामने नृत्य किया जाता है, जिससे उन्हें आनंद का अनुभव होता है। इसमें रंगबज़ारी (रंगीन वस्त्रों का प्रयोग) का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है।

        धारावाहिक नृत्य: चरकुला नृत्य अक्सर एक धारावाहिक नृत्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें भगवान कृष्ण की लीलाओं को दर्शाने के लिए विभिन्न दृश्यों का प्रस्तुतिकरण किया जाता है।

        समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा: चरकुला नृत्य उत्तर प्रदेश की समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य भगवान कृष्ण के जन्मभूमि ब्रज के प्रसिद्धता को और अधिक बढ़ाता है।

        चरकुला नृत्य एक अनूठा और रंगीन नृत्य है जो भारतीय सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है और ब्रज की रिच फोल्कलोर और परंपराओं को प्रस्तुत करता है। चरकुला नृत्य में शामिल होने से कलाकारों का आत्मविश्वास और उत्साह बढ़ता है। यह उन्हें स्वांग, अभिनय और नृत्य कौशल में सुधार का अवसर प्रदान करता है। चरकुला नृत्य का आयोजन बड़े समूहों में किया जाता है, जिससे समूह के सदस्य एक-दूसरे के साथ अच्छे रिश्तों को बढ़ावा देते हैं। चरकुला नृत्य के रंगीन और उत्साहजनक प्रस्तुतिकरण से लोगों को मनोरंजन का अद्वितीय अनुभव मिलता है। यह लोगों को रंगों, संगीत और नृत्य का आनंद लेने का अवसर प्रदान करता है। चरकुला नृत्य उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोक नृत्य का एक प्रमुख अंग है, जो मुख्य रूप से ब्रजभूमि के क्षेत्र में प्रस्तुत किया जाता है। यह नृत्य अत्यधिक रंगीन, उत्साहजनक और परंपरागत महसूस कराता है, जो लोगों को एकत्रित करता है और उन्हें मनोरंजन का अद्वितीय अनुभव प्रदान करता है।

          Categories
          Delhi Travel

          Humayun’s Tomb – Delhi’s Mughal Masterpiece

          “Journey Through Mughal Grandeur and Architectural Marvels” Exploring Humayun’s Tomb offers a captivating journey through history, architecture, and culture.(Humayun’s Tomb – Delhi’s Mughal Masterpiece)

          History of  Humayun’s Tomb

          Humayun’s Tomb, located in Delhi, India, is a mausoleum built for the Mughal Emperor Humayun. It was commissioned by his widow, Empress Bega Begum, in 1569-70, nine years after his death. The tomb was designed by the Persian architect Mirak Mirza Ghiyas, who introduced Persian architectural elements to India, marking the beginning of Mughal architecture.

          My Experience of Humayun’s Tomb

          Last week, I had the incredible opportunity to visit Humayun’s Tomb, and it was truly an unforgettable experience. From my hotel in bhikaji Cama Place. I took Auto which cost 300 Rupees however only being six miles. The nearest Stations are Nizamuddin Railway Station and JLN Stadium station on the violet Line of the Delhi Metro.

          Tickets

          Finally I was entered in humayun’s tomb then joined line to buy my tickets. The foreigner entrance fee for humayun’s tomb was 600 Rupees however Indian Nationals only pay 40 Rupees Children under 15 can enter free of charge. Phones were allowed there.

          I reached there at 1 :00pm with my friends. It was the best time for visit because you will find less crowd at that time .Stepping through the gates, I felt transported to another era, where the rich history of the Mughal Empire seemed to come alive in every intricate detail of the architecture. The red sandstone walls and intricately carved marble facades exuded a sense of majesty and splendour that was simply awe-inspiring.

          Buland Darwaza

          Entering the tomb, I was enveloped by a sense of reverence as I gazed upon the tombs of Emperor Humayun and his family. The dimly lit interior and hushed whispers of other visitors created an atmosphere of solemnity and reflection, reminding me of the enduring legacy of the Mughal dynasty. The main entrance gateway of Humayun’s Tomb, known as the Buland Darwaza, stands at an impressive height of around 15 meters(49 feet).


          This towering gateway features intricate carvings and ornate embellishments typical of Mughal architecture. Its majestic presence serves as a grand introduction to the monument and adds to the awe-inspiring atmosphere surrounding Humayun’s Tomb. The garden is divided into four equal quadrants by pathways or water channels, creating a symmetrical and geometrically pleasing arrangement. Each quadrant is further subdivided into smaller squares or rectangles, often planted with trees, flowers, and other vegetation.

          Charbagh layout

          The Charbagh layout symbolizes the concept of paradise in Islamic tradition, representing the four rivers of water, milk, honey, and wine flowing in paradise. This design is not only aesthetically pleasing but also serves practical purposes such as irrigation and drainage.

          Surrounding the central chamber, there are additional graves of other notable figures, including Empress Bega Begum, the principal wife of Humayun, and other members of the royal family. These graves are also made of white marble and feature similar ornate carvings and inscriptions. The interior of the mausoleum creates a solemn and reverential atmosphere, with visitors paying their respects to the departed rulers and reflecting on the legacy of the Mughal Empire. The presence of these graves adds to the historical and cultural significance of Humayun’s Tomb, making it not just a monument of architectural brilliance but also a sacred space honoring the memory of the Mughal dynasty.

          I spent just over 3 hours at humayun’s tomb and left just 4:00 pm. Then me and my friends enjoyed the street food outside the humayun’s tomb we were having Chole Kulche, Pani Puri/Gol Gappa, Aloo Tikki, Jalebi then we took soft drinks like Coca cola, Pepsi.

          Around Humayun’s Tomb, there are several markets and areas where visitors can explore and shop for various items, including souvenirs, handicrafts, clothing, and more. Sundar Nursery Market: Located adjacent to Humayun’s Tomb, Sundar Nursery hosts a small market offering traditional Indian handicrafts, artifacts, and souvenirs. Visitors can also find plants, gardening accessories, and decorative items here.

          Emerging from the mausoleum, I took one last lingering look at the magnificent structure before me, feeling grateful for the opportunity to have experienced such a remarkable piece of history. As I bid farewell to Humayun’s Tomb, I carried with me not just memories of a journey through time, but a renewed appreciation for the beauty, craftsmanship, and enduring legacy of this architectural masterpiece.

          Written by -Shalini Rawat /// Edited by- Pardeep Kumar