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मसाला चौक

खाने-पीने के मामले में देखा जाए तो पिंक सिटी जयपुर वास्तव में एक ऐसा शहर है जो कि बहुत फेमस है यहां के बेहद लजीज व्यंजनों के कारण, क्योंकि यहां के प्रसिद्ध व्यंजन, तरह-तरह की स्टाइल और तरह-तरह की चीजों से बने हुए होते हैं। अगर बात खाने से संबंधित हो तो जयपुर की खूबसूरत जगहों में से एक जगह है मसाला चौक जो कि खाने को लेकर अपनी वैरायटी के लिए और अपनी क्वालिटी के लिए बहुत ही मशहूर है। 2018 में बनने के बाद से आज तक,  मसाला चौक ने हर खाने के शौकीन फिर चाहे वह जयपुर शहर का हो या फिर बाहर का कोई टूरिस्ट हर किसी के दिल पर शिद्दत से राज किया है। आप गूगल मैप्स की मदद से अल्बर्ट हॉल म्यूजियम तक पहुंच सकते हैं। अल्बर्ट हॉल के टिकट काउंटर से थोड़ा आगे साउथ की ओर बढ़ेंगे तो मसाला चौक आपके बायीं तरफ दिखाई देगा। यहां तक पहुंचने के लिए आप जयपुर बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन से ऑटो या टैक्सी ले सकते हैं और यदि आपको चलना पसंद है तो आप पैदल यात्रा भी कर सकते हैं। मसाला चौक के लिए प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क के रूप में 10 रुपये लिए जाते हैं।

जंतर-मंतर

राजस्थान की राजधानी जयपुर में सवाई जय सिंह द्वारा बनवाया गया जंतर-मंतर यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल है। यहाँ पर मौजूद उपकरण और यंत्र बेहद पुराने होने के बावजूद भी आधुनिकता का प्रमाण देते हैं। इन बेहद पुराने उपकरणों से समय को मापा जाता है।  आपने कभी सूर्य तो कभी चंद्र ग्रहण के बारे में अवश्य सुना होगा, इन यंत्रो से भविष्य में आने वाले ऐसे ग्रहण के विषय में पता लगाया जाता है। वैसे भी जयपुर स्थित जंतर-मंतर  भारत के सबसे बेहतरीन वेधशालाओं में से एक है। जंतर-मंतर जयपुर में भारतीय एडल्ट्स  के लिए टिकट की कीमत 50 रुपए है और भारतीय स्टूडेंट के लिए 15 रुपए है। वही दूसरी तरफ विदेशी पर्यटकों के लिए टिकट की कीमत ₹200 और फॉरेन स्टूडेंट के लिए 100 निर्धारित की गई है। जंतर-मंतर जयपुर के खुलने का समय सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक है। यह हफ्ते के सातों दिन खुला रहता है, और आप पूरे जंतर-मंतर को अच्छे से दो से तीन घंटे में देख सकते हैं।

आमेर का किला

जयपुर शहर का नाम आते ही यहाँ के बड़े-बड़े और भव्य किले दिलोदिमाग में तैरने लगते हैं। और इन्हीं किलों में निसंदेह सबसे पहले जिस किले की छवि उभरती वो है खूबसूरत आमेर का किला। ये किला ना केवल जयपुर शहर बल्कि पूरे राजस्थान के शानदार पर्यटन स्थलों में से एक है। आमेर का किला इतना प्रसिद्ध है कि यहाँ पर हर रोज छह हजार से भी अधिक लोग घूमने के लिए आते हैं। यह किला राज्य की राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर की दूरी पर है।

अगर आप इस किले की खूबसूरती का आनंद लेना चाहते हैं, तो सर्दियों के समय में नवंबर से मार्च महीने के बीच यहां जाना सबसे अच्छा माना जाता है। इस किले तक पहुंचने के लिए जयपुर से बस, ऑटो-रिक्शा, टैक्सी या कैब ली जा सकती है। आप अजमेरी गेट और एमआई रोड से आमेर शहर के लिए रोडवेज या प्राइवेट बसों से भी जा सकते हैं। आमेर के किले के लिए विदेशी सैलानियों से 250 रुपये और भारतीयों सैलानियों से टिकट के 50 रुपये लिए जाते हैं। अगर आप स्टूडेंट हैं, तो जयपुर शहर की यात्रा करते समय अपना स्कूल या कॉलेज आईडी कार्ड ले जाना कभी मत भूलिए, किले की सैर के लिए मिलने वाली टिकटों पर स्टूडेंट्स को भारी छूट दी जाती है, इसके अलावा सात साल से कम उम्र के बच्चे के लिए यहां ज्यादातर जगहों पर टिकट निःशुल्क हैं।

आमेर के किले में टिकट काउंटर सूरज पोल के सामने जलेब चौक प्रांगण में मौजूद है। आप वहां एक ऑफिसियल टूरिस्ट गाइड भी ले सकते हैं। इसके अलावा लंबी लम्बी लाइनों से बचने के लिए आप टिकट ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं।

बापू बाजार

जयपुर शहर के केंद्र में, सांगानेर गेट और गुलाबी शहर के नए गेट के बीच, बापू बाजार जूते से लेकर हैंडीक्राफ्ट्स तक, आर्टिफीसियल जूलरी से लेकर पीतल के काम और कीमती पत्थरों तक की खरीदारी के लिए एक बेहतरीन डेस्टिनेशन है, जहां आपको अपनी मनपसंद का हर एक सामान आसानी से मिल जाएगा। बापू बाजार यहां मिलने वाली फेमस राजस्थानी आइटम्स जैसे कलाकृतियों, हैंडीक्राफ्ट, परम्परागत कपड़े और आर्टिफिशियल जूलरी के लिए देश भर में प्रसिद्ध है। राजस्थान जिस चीज के लिए प्रसिद्ध है वह है इसकी जीवंतता और भव्यता। और अगर आप इसकी राजधानी जयपुर में घूमने के लिए आते हो तो आप बापू बाजार में शॉपिंग करके अपनी ट्रिप को यादगार बना सकते हो। बापू बाजार जयपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन से 4 किलोमीटर दूर है। आप कोई भी ऑटो रिक्शा किराए पर ले सकते है या कैब बुक करके भी यहां आसानी से पहुंच सकते हैं। इसके अलावा आप यहां पर किसी लोकल बस से भी आ सकते हैं।

नाहरगढ़ फोर्ट

नाहरगढ़ किला , जो कई अनगिनत महलों और सुंदर ऐतिहासिक इमारतों में से एक है जो जयपुर  शहर के शानदार और समृद्ध इतिहास को बताता है। नाजुक नक्काशी और पत्थर के शानदार वर्क के साथ नाहरगढ़ किला एक अभेद्य दुर्ग है जो आमेर किले और जयगढ़ किले के साथ मिलकर जयपुर शहर के मजबूत रक्षक के रूप में खड़ा है। जो भी पर्यटक जयपुर घूमने के लिए जाता है वो इस ऐतिहासिक किले को देखे बिना रह नहीं पाता है। नाहरगढ़ फोर्ट सुबह 10 बजे से शाम 5:30 बजे तक ओपन रहता है, नाहरगढ़ पैलेस की एंट्री फीस  भारतीय पर्यटकों के लिए – 50 रूपये और विदेशी पर्यटकों के लिए – 200 रुपये है।

नाहरगढ़ जूलॉजिकल पार्क

नाहरगढ़ किले के परिसर में आकर्षक संरचनाओं के अलावा एक नाहरगढ़ जूलॉजिकल पार्क भी स्थित है जो इस किले का एक खास आकर्षण है। इस  जैविक पार्क को बारीक ग्रेनाइट और क्वार्टजाइट चट्टानों से सजाया गया है। यह पार्क अपने समृद्ध वनस्पतियों के लिए जाना जाता है जिसमें आप कई जानवरों को उनके प्राकृतिक परिवेश में देख सकते हैं। इस जैविक पार्क में एशियाई शेर, बंगाल टाइगर और भारतीय तेंदुआ भी पाए जाते हैं। सबसे खास बात तो यह है कि इस पार्क में पक्षियों की 285 प्रजातियां भी पाई जाती है जो पक्षी प्रेमियों को बेहद आकर्षित करती हैं। नाहरगढ़ जूलॉजिकल यहाँ एक और ऐसा खास पर्यटक केंद्र है जहां पर एशियाई शेर, बंगाल टाइगर, पैंथर, भेड़िये, हिरण, लकड़बग्घा, मगरमच्छ, हिमालयी काला भालू, सुस्त भालू, जंगली सूअर, आदि जैसे जानवर पाए जाते हैं। नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क पर्यटकों के घूमने के लिए मंगलवार(Tuesday) को छोड़कर  प्रतिदिन सुबह 8 बजे शाम 5.30 बजे तक खुला रहता है। और बता दे की नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क की मनोरंजक यात्रा के लिए कम से कम 2 से 3 घंटे का समय अवश्य निकालकर यात्रा करें। नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क में 7 साल से कम उम्र के बच्चे के लिए प्रवेश निःशुल्क है। भारतीय स्टूडेंटो के लिए 20 प्रति छात्र टिकट वहीँ भारतीय पर्यटकों के लिए  50 प्रति व्यक्ति और जिसमे आपको केमरा के लिए 200 रूपये व वीडियो केमरा के लिए 500 रूपये की टिकट अलग से लेनी होगी।

जलमहल

झील के बीचोंबीच बना ये जलमहल राजस्थान के जयपुर जिले के आमेर मार्ग पर स्थित है, दिल्ली से लगभग 260 किलो मीटर और अजमेर से 146 किलो मीटर की दूरी पर बना ये महल पर्यटकों के आकर्षण का विशेष केंद्र है। सैर सपाटे और घूमने के साथ-साथ यह क्षेत्र अब  लोगों के लिए आय का साधन भी बन गया है. यहां पर आपको राजस्थानी मोजड़ी, राजस्थानी जूती, हैंड बैग, होम डेकोरेटिव आइटम्स, ज्वेलरी और एडिशनल क्लोथ्स, मैग्नेट और भी कई डेली यूज़ के सामान मिलते हैं, इसी के साथ आपको यहां खाने-पीने के बहुत सारे आइटम भी मिल जाएंगे.  वैसे तो यह महल 24 घंटे खुला रहता है पर यहां आने का सबसे उपयुक्त समय सुबह दस बजे से रात नौ बजे तक है इस समय अधिकतर लोग यहां पिकनिक करने, क्वालिटी टाइम स्पेंड करने और सुबह शाम यहां के लोकल लोग वॉक करने भी आते हैं।  यहां आने का सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर से मार्च के बीच का है । दरअसल इन दिनों सर्दियों की खिली-खिली धूप में जल महल का नजारा बहुत ही अद्भुत और खूबसूरत लगता है। यहाँ पर एंट्री करने की कोई टिकट नहीं है। प्री वेडिंग शूट के लिए भी यह एक बेस्ट डेस्टिनेशन है।

हवा महल

जयपुर के गुलाबी शहर में बड़ी चौपड़ पर स्थित हवा महल राजपूतों की शाही विरासत, वास्तकुला और संस्कृति के अद्भुत मिश्रण का प्रतीक है। हवा महल को राज्स्थान की  सबसे प्राचीन इमारतों में से एक माना जाता है। बड़ी ही खूबसूरती के साथ बनाया गया हवा महल जयपुर के सबसे प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षणों में से एक है। कई झरोखे और खिडकियां होने के कारण हवा महल को “पैलेस ऑफ विंड्स” भी कहा जाता है। हवा महल की खास बात यह है कि यह दुनिया में किसी भी नींव के बिना बनी सबसे ऊंची इमारत है। सर्दियों के मौसम में आप जयपुर घूमने आ सकते हैं। नवंबर की शुरूआत से फरवरी के बीच तक का समय पर्यटकों का पीक सीजन होता है। सुहावने मौसम के साथ आप यहां एक नहीं बल्कि कई प्राचीन इमारतों की यात्रा सुकून से कर पाएंगे। हवा महल को देखने का समय सुबह 9:30 बजे से शाम 4:30 बजे तक है। हवा महल की एंट्री फीस भारतीयों के लिए 50 रूपए और विदेशियों के लिए 200 रूपए है। अगर आप हवा महल के अंदर की तस्वीरों को क्लिक करने के लिए कैमरा साथ ले जाना चाहते हैं तो आपको एंट्री फीस के अलावा 10 रूपए अलग से चार्ज देना होगा जो विदेशियों के लिए 30 रूपए है।

सिटी पैलेस

सिटी पैलेस एक लोकप्रिय विरासत है जो शहर के बीचोबीच स्थित है। यह शहर की शानदार इमारतों में से एक है। इस शानदार महल का निर्माण महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया  था जिन्‍होने जयपुर की स्‍थापना की थी। यहां के संग्रहालय में हाथी दांत तलवारें, चेन हथियार, बंदुक, पिस्‍टल, तोपें, प्‍वाइजन टिप वाले ब्‍लेड और गन पाउडर के पाउच भी प्रर्दशन के लिए रखे गए हैं।  इनमें से कुछ हथियार तो 15 वीं सदी के आसपास के है। सिटी पैलेस, पर्यटकों के लिए सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है। इसमें भ्रमण करने के लिए भारतीयों को 75 रू और विदेशियों को 300 रू का प्रवेश शुल्‍क देना पड़ता है।

जयपुर कैसे पहुचे

जयपुर भारत का एक काफी प्रसिद्ध शहर है, जयपुर पहुचना बहुत ही आसान है, यह शहर भारत के सभी बड़े शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है –

यदि आप वायुमार्ग से पिंक सिटी जयपुर जाने की सोच रहे है हम आपको बता दे यह शहर भारत के समस्त बड़े शहरो से जुड़ा हुआ है, यहाँ का हवाई अड्डा सांगानेर जयपुर इंटरनेशनल एअरपोर्ट नाम से जाना जाता है और यह शहर से लगभग 13-14 किलोमीटर की दूरी पर है.

यदि आप रेल मार्ग का रुख कर रहे है तो इसमें भी यह शहर आपको निराश नहीं करेगा अपने देश के विभिन्न शहरो से जयपुर के लिए ट्रेन चलती है. आप सीधे यहाँ पहुच सकते हैं.

सड़क मार्ग से भी यहाँ पहुचना बड़ा आसान है क्यूंकि देश के राष्ट्रीय राजमार्ग से जयपुर जुड़ा हुआ है. कई बड़े शहरों से यहाँ के लिए सीधी बस सेवाए उपलब्ध हैं|

जयपुर में कहाँ रुके

बात अगर जयपुर में ठहरने की करें  तो यह हमेशा से एक शाही शहर रहा है तो यहाँ की हर एक चीज में अलग ही शानो शौकत है। यहाँ रुकने के लिए एक से बढ़कर एक रिसोर्ट, होटल, हवेली हैं जो आपको बहुत ही डीलक्स सुविधाए देंगी। आप यहाँ अपने बजट के हिसाब से होटल्स चुन सकते है। यदि आपका बजट कुछ कम तो चिंता न करिए, जयपुर की एक और अच्छी बात है की यहाँ पर कुछ अच्छी धर्मशालाए भी है जो आपको आपके बजट में बड़ी आसानी से मिल जाएँगी जिनमें श्री पंचायती धर्मशाला, खंडेलवाल धर्मशाला, श्री मोदी चैरिटेबल धर्मशाला प्रमुख हैं|

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Category Delhi Lifestyle

“Delhi Metro: Beyond Transportation – A Journey Through Sustainability, Social Impact, and Urban Growth”

The Delhi Metro, a lifeline for millions in India’s bustling capital, witnesses a staggering number of commuters each year, more than the entire population of the United States! With Delhi being one of the most densely populated and polluted cities in the world, the Metro plays a crucial role in managing the city’s ever-increasing urban sprawl. But have you ever wondered where your fare goes or how this massive transport system impacts Delhi’s dynamics? In this blog, we’ll explore the most interesting facts about the Delhi Metro, from its cutting-edge technology and sustainability efforts to its effect on pollution, population, and urban growth. While most might think of it as simply a mode of transportation, the Delhi Metro has a much deeper impact on the environment, social welfare, and even popular culture. Let us uncover the fascinating world behind one of the busiest metro systems in the world! (Delhi Metro)

 1.A Positive Contributor to the Environment  

Delhi Metro

 2.Supporting Street Children 

 3.Why Metro Trains Have an Even Number of Coaches 

Have you ever wondered why the Delhi Metro always has an even number of coaches? The answer is quite technical but fascinating! Metro trains once operated with four coaches, and now many have six or eight. This is due to the two types of coaches in the metro system: the ‘D’ car, which is the driver’s cabin that pulls electricity from overhead wires, and the ‘M’ car, which is the motor car. The ‘M’ car houses three-phase induction motors responsible for power transmission. Together, the ‘D’ and ‘M’ cars function as one operational unit, and they cannot run independently. Thus, metro trains always operate with an even number of coaches. 

 4.Asia’s Largest Escalator at Janakpuri 

Delhi Metro

5. A Star of the Silver Screen 

The beauty of the Delhi Metro has not gone unnoticed by filmmakers. Many iconic movies have featured scenes shot on the metro, making it a recognizable symbol across India. The first movie to be filmed here was Bewafaa in 2003, followed by many others like Delhi-6, Love Aaj Kal, PK, and Paa. Its sleek design and modern aesthetic have made it a preferred location for shooting, reflecting the city’s evolving landscape. 

The Delhi Metro Is much more than just a way to get from point A to point B. It’s a sustainable solution for Delhi’s pollution, a supporter of social causes, a host of record-breaking infrastructure, and a favourite among filmmakers. The next time you step into a metro station, take a moment to appreciate the role it plays, both in your life and in the city’s broader landscape

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Culture Delhi

कालकाजी मंदिर: आस्था और आध्यात्मिकता का संगम

कालकाजी मंदिर- दिल्ली के दक्षिण में स्थित एक ऐसी पवित्र जगह- जहाँ आप आस्था और श्रद्धा भाव के साथ अध्यात्म को भी महसूस कर सकते हैं। यह प्राचीन मंदिर, दिल्ली के नेहरू प्लेस इलाके में स्थित है, माँ काली या माँ कालका के शक्ति रूप को समर्पित है। आइए, इस पवित्र मंदिर की कहानी और कुछ ऐसे तथ्यों के बारे में जानते हैं जिनके बारे में अधिकतर लोगों को शायद ही पता हो।(Kalkaji Mandir)

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर का इतिहास और महत्व

मान्यता है कि यह मंदिर सत् युग से स्वतः स्थापित है और ज्ञातव्य इतिहास मे इसका पुनर्निर्माण आधिकारिक रूप से 1764 ईस्वी में हुआ था। यह मंदिर माँ काली के उस जागृत रूप का है, जिन्होंने रक्तबीज नामक राक्षस का वध किया था। कथा के अनुसार, जब असुरों का अत्याचार बढ़ने लगा, तो सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने उन्हें माँ पार्वती की पूजा करने की सलाह दी। माँ पार्वती ने इस स्थान पर आकर असुरों का संहार किया और यहीं अपना निवास बनाया।

महाभारत के समय भी इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि पांडवों ने  यहाँ प्रार्थना की थी और माँ काली से हर चुनौती को पार करने की शक्ति मांगी थी।  यह स्थान “सिद्ध पीठ” के रूप में प्रसिद्ध है, जहाँ भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर की विशेषताएँ

इस मंदिर की वास्तुकला बेहद अनोखी है। केंद्रीय कक्ष 12 भुजाओं वाला है, जो 12 महीनों का प्रतीक है। मंदिर के 36 मेहराबदार प्रवेश द्वार और संगमरमर से बने पिरामिडनुमा मीनारें इसकी सुंदरता और दिव्यता को बढ़ाते हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर दो बलुआ पत्थर के शेरों की मूर्तियाँ स्थापित हैं, जो माँ काली की शक्ति और वीरता का प्रतीक हैं। मंदिर के अंदर एक केंद्रीय कक्ष है, जिसमें माँ कालका देवी का विग्रह स्थापित हैं। बरामदे के पास एक ऐतिहासिक हवन कुंड भी है, जो 300 साल पुराना है और आज भी यहाँ हवन किए जाते हैं।

Kalkaji Mandir

कालकाजी मंदिर के त्यौहार और नवरात्रि की रौनक

हर हिंदू त्योहार यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन नवरात्रि के दौरान यहाँ का माहौल अलग ही होता है। वसंत नवरात्रि (जो अप्रैल में होती है) और महानवरात्रि (जो अक्टूबर में होती है) के समय श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। मंदिर को 150 किलो ताजे फूलों से सजाया जाता है, जिनमें कई विदेशी फूल भी होते हैं। माँ के श्रृंगार को रोज़ाना दो बार बदला जाता है — सुबह और शाम के समय माँ के अलग-अलग रूपों के दर्शन किए जाते हैं।

कालकाजी मंदिर से जुड़े रोचक तथ्य

1. महाभारत से जुड़ा हुआ मंदिर

  इस मंदिर का उल्लेख महाभारत में मिलता है, जहाँ पांडवों ने अपनी जीत के लिए माँ से आशीर्वाद लिया था। 

2. औरंगज़ेब के समय का मंदिर

   मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने इस मंदिर के कुछ हिस्सों को तुड़वा दिया था, लेकिन 18वीं सदी में इसका पुनर्निर्माण हुआ। 

3. मुंडन संस्कार का पवित्र स्थान

   यहाँ कई लोग अपने बच्चों के मुंडन संस्कार के लिए आते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार, मुंडन एक ऐसे भार को हटाता है जो पिछले जन्म से जुड़ा हुआ होता है। 

4. सूर्य ग्रहण के समय भी खुला मंदिर

   जब ज़्यादातर मंदिर ग्रहण के समय बंद रहते हैं, कालकाजी मंदिर खुला रहता है और भक्त माँ के दर्शन कर सकते हैं। 

5. स्वयंभू मंदिर

   लोक कथाओं के अनुसार, माँ काली यहाँ स्वयं प्रकट हुई थीं और असुरों का वध करने के बाद इस स्थान को अपना घर बनाया। 

यहाँ हर मनोकामना पूरी होती है

मान्यता है कि यहाँ माँ कालका के दर्शन करने से हर मनोकामना पूरी होती है, इसीलिए इसे “मनोकामना सिद्ध पीठ” कहते हैं। चाहे आप अपनी व्यक्तिगत जीवन में चुनौतियों का सामना कर रहे हों या एक आध्यात्मिक अनुभव की तलाश में हों, कालकाजी मंदिर एक ऐसी जगह है, जिसे अवश्य देखना चाहिए। दिल्ली के दिल में बसा यह पवित्र मंदिर, आस्था और इतिहास का अद्भुत संगम है। क्या आपने कालकाजी मंदिर के दर्शन किए हैं? अगर नहीं, तो अपनी अगली दिल्ली यात्रा में इस दिव्य स्थान को ज़रूर शामिल करें!

रक्तबीज ने वरदान प्राप्त किया था कि, जहां-जहां उसके रक्त की बूंदे गिरेंगी, उससे उसी की तरह एक नया रक्तबीज पैदा हो जाएगा जब मां दुर्गा और रक्तबीज के बीच युद्ध हुआ. मां दुर्गा जैसे ही उसके अंगों को काटने लगी तो उसके रक्त से नए दैत्य रक्तबीज का जन्म होने लगा. इस तरह से रक्बीज दैत्य की सेना खड़ी हो गई. आखिरकार मां ने देवी चंडिका को आदेश दिया कि, जब वह रक्तबीज पर प्रहार करे तो वह उसका रक्त पी जाए. इससे नया रक्तबीज उत्पन्न नहीं होगा. इसके बाद मां पार्वती ने भद्रकाली कालिका का रूप धारण किया.  मां काली के इस रूप को समातन धर्म में अन्य सभी देवी-देवताओं में विकराल माना जाता है.

जहां-जहां रक्तबीज का रक्त गिरता मां उसे पी जाती और इससे नया दैत्य उत्पन्न नहीं हो पाता. कहा जाता है कि इस अवतार में मां का रूप बहुत विकराल हो गया था और उन्होंने कई राक्षसों को निगल भी लिया था. इस तरह से मां दुर्गा ने रक्तबीज का संहार किया.मां जब अपने कालका धाम में आकर विराजमान हुई तो उन्होंने अत्यंत  सुंदर रूप धारण कर लिया ताकि उनके भक्त और उनके संतानों पर उनका स्नेहाशीष बरसता रहे.

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पुष्कर मेला-दुनिया का सबसे बड़ा ऊँट व्यापार मेला

दोस्तों, इन दिनों देश-विदेश सब जगह पुष्कर मेले की धूम है. साल भर सैलानी इस मेले के आयोजन का इंतज़ार करते हैं. आज इस ब्लॉग में हम दुनिया भर में यह मेला यहाँ के ऊँटों के लिए इतना प्रसिद्ध क्यों है, इसके बारे में विस्तार से जानेंगे. (Pushkar Mela)

पुष्कर मेला Pushkar Mela

दुनिया का सबसे बड़ा ऊँट व्यापार मेला

पुष्कर मेला Pushkar Mela

मिस ऊँट प्रतियोगिता होती है मेले का प्रमुख आकर्षण -पुष्कर मेला में ऊँटों को रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाया जाता है, और उनके साथ पारंपरिक राजस्थान संगीत और नृत्य भी होते हैं। एक विशेष प्रतियोगिता में ऊँटों को सजाकर विभिन्न कला रूपों का प्रदर्शन किया जाता है। ऊँटों के लिए नृत्य प्रतियोगिता भी आयोजित होती है, जहाँ ऊँट विभिन्न करतब दिखाते हैं, जैसे की ऊँट की दौड़, ऊँट का नृत्य, और मिस ऊँट प्रतियोगिता। मिस ऊँट प्रतियोगिता बहुत ही आकर्षक होती है और दर्शक इस प्रतियोगिता का खूब आनंद उठाते हैं।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

इसके अलावा यहाँ मेले के दौरान देसी-विदेशी पर्यटकों के लिए क्रिकेट मैच, फुटबाल, रस्साकसी, सतोलिया और कबड्‌डी मैच का आयोजन होता है. ऊंट-घोड़ों की सजावट, नृत्य आदि की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं, सैलानियों के लिए मूंछ, टरबन, दुल्हा-दुल्हन बनो, रंगोली, मांडना जैसी कई प्रतियोगिताएं भी मेले का हिस्सा होती हैं. जिससे यहाँ आने वाले सैलानियों को खूब मस्ती और मनोरंजन करने को मिलता है .

यहाँ पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, सुवेनियर, हथकरघा वस्त्र, और आभूषण की दुकानें भी लगती हैं, जहां पर्यटक राजस्थानी कला और हस्तशिल्प का आनंद ले सकते हैं।

पुष्कर मेला  Pushkar Mela

पुष्कर मेले का इतिहास भी है खास

पुष्कर मेला का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसे ब्रह्मा जी से जुड़ी धार्मिक परंपराओं से जोड़ा जाता है। माना जाता है कि पुष्कर झील का निर्माण ब्रह्मा जी ने स्वयं किया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, पुष्कर वह स्थान है जहाँ भगवान ब्रह्मा ने अपनी पत्नी सावित्री के साथ यज्ञ किया था। यह स्थान अत्यंत पवित्र माना जाता है और हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। प्राचीन काल में भी, कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) में आयोजित होने वाला यह मेला एक धार्मिक और व्यापारिक आयोजन था। इस समय भारत के विभिन्न हिस्सों से लोग यहाँ आकर स्नान करते थे और पूजा अर्चना करते थे। धीरे-धीरे इस धार्मिक मेले में व्यापारिक गतिविधियाँ भी जुड़ने लगीं, विशेषकर पशु व्यापार, जैसे ऊंट, घोड़े, बैल आदि की खरीद-फरोख्त।

मेला कब होता है

पुष्कर मेला कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) में आयोजित होता है। यह मेला आमतौर पर पांच दिनों तक चलता है, लेकिन कभी-कभी इसकी अवधि और भी बढ़ सकती है। मेला कार्तिक पूर्णिमा के आसपास अपने चरम पर होता है, जब बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक पुष्कर आते हैं। आधुनिक पुष्कर मेला अब एक सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है, जिसमें ऊंटों की दौड़, पारंपरिक संगीत और नृत्य, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, और विभिन्न प्रकार के प्रतियोगिताएँ होती हैं। यहाँ स्थानीय राजस्थानी कला, संस्कृति और परंपराओं को भी प्रदर्शित किया जाता है।

पुष्कर झील

पुष्कर मेला और पुष्कर झील दोनों का गहरा संबंध है। मेले का मुख्य आकर्षण पुष्कर झील में पवित्र स्नान और पूजा-अर्चना होती है, जो श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखता है। मेले के दौरान, विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के दिन, लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं और झील में स्नान करने के बाद पूजा करते हैं।

पुष्कर झील (Pushkar Lake) एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल है और इसे राजस्थान की पवित्र झील के रूप में जाना जाता है। यह झील ब्रह्मा जी के साथ जुड़ी हुई है, और हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह झील विशेष रूप से पवित्र है। पुष्कर झील के बारे में मान्यता है कि यह ब्रह्मा जी द्वारा बनाई गई थी। किंवदंती के अनुसार, ब्रह्मा जी ने इस झील में स्नान किया और यहाँ पूजा अर्चना की। इसलिए यह झील हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। माना जाता है कि जो भी व्यक्ति पुष्कर झील में स्नान करता है, उसके पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखों श्रद्धालु यहाँ स्नान करने आते हैं, और उस दिन विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन होता है।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

पुष्कर झील के चारों ओर 52 घाट (ghats) हैं, जिन पर श्रद्धालु स्नान करते हैं और पूजा करते हैं। यह घाट प्राचीन वास्तुकला का उदाहरण हैं और यहाँ पर धार्मिक अनुष्ठान और संस्कृतियाँ होती हैं। घाटों पर होने वाली धार्मिक क्रियाएँ और पुजारियों द्वारा की जाने वाली पूजा आमतौर पर बहुत ही भावनात्मक और आध्यात्मिक होती हैं। पुष्कर मेला के दौरान, खासकर कार्तिक पूर्णिमा के समय, हर साल लाखों श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करते हैं। यह समय विशेष रूप से धार्मिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन को पवित्र स्नान और ब्रह्मा जी की पूजा के लिए सबसे उत्तम समय माना जाता है। पुष्कर झील न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका प्राकृतिक सौंदर्य भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह झील सूर्योदय और सूर्यास्त के समय विशेष रूप से सुंदर दिखाई देती है। झील के किनारे सुंदर मंदिर और घाट स्थित हैं, जो इसे एक शांतिपूर्ण और आकर्षक स्थल बनाते हैं।

टैंट सिटी और कैम्पिंग है इस मेले की जान

पुष्कर मेला Pushkar Mela

पुष्कर मेला के दौरान टैंट सिटी का आयोजन भी किया जाता है, जहाँ पर्यटकों को ट्रेंडी और आरामदायक टैंट आवास की सुविधा मिलती है। यहाँ आने वाले सैलानियों के लिए यह एक अद्वितीय अनुभव होता है, जो शहर की हलचल से दूर प्राकृतिक वातावरण का आनंद लेने का मौका देता है। टैंट सिटी में आपको होटल जैसी सुविधाएं मिलती हैं जैसे कि बिस्तर, टॉयलेट, गर्म पानी, और कभी-कभी तो खास डाइनिंग सुविधा भी होती है। ये टैंट विशेष रूप से उन पर्यटकों के लिए आदर्श होते हैं, जो मेले की भीड़-भाड़ में भी एक अनोखा और कनेक्टेड अनुभव चाहें। टैंट सिटी में प्रायः रात्रि में आग जलाने का आयोजन(बॉन फायर), लोक नृत्य (कालबेलिया और घूमर), और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं, जो मेले की जीवंतता में और इजाफा करते हैं।

पुष्कर मेला Pushkar Mela

15 नवंबर को है कार्तिक पूर्णिमा महास्नान-आप की जानकारी के लिए बता दें इस साल 9 नवंबर को झंडा चढ़ने के साथ धार्मिक मेले की विधिवत शुरूआत हो गई है. इसी दिन एकादशी और पंचतीर्थ स्नान साधु संतो के साथ होता है, जबकि 15 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा के दिन महास्नान का दिन निश्चित हुआ है. इस धार्मिक मेले में देशभर से 13 अखाड़ों के साधु-संत जुटेंगे. साथ देसी सैलानियों का भी सर्वाधिक आगमन इसी दौरान होगा. साधु संतों के स्नान से पहले पुष्कर तीर्थ नगरी के विभिन्न मार्गो से साधु संतों की धार्मिक यात्राएं भी निकाली जाती हैं.


पुष्कर मेला कैसे जाएं

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कुंभ मेला:  जानिए दुनिया के सबसे बड़े मेले के बारे में

इस मेले का आयोजन चार प्रमुख पवित्र स्थानों – प्रयागराज (इलाहाबाद): यहाँ गंगा, जमुना, और सरस्वती नदियों का संगम होता है। हरिद्वार: यहाँ गंगा नदी का प्रवाह होता है। उज्जैन: यहाँ शिप्रा नदी के तट पर महाकुंभ होता है। नासिक: यहाँ गोदावरी नदी के तट पर महाकुंभ आयोजित होता है। इन चार स्थानों को ‘कुंभ’ का आयोजन स्थल माना जाता है। और जब ये चारों स्थान एक साथ महाकुंभ के आयोजन में शामिल होते हैं, तो इसे महाकुंभ कहा जाता है।

महाकुंभ का आयोजन एक निश्चित कालखंड में होता है, जो ज्योतिषीय गणना पर आधारित होता है। प्रत्येक कुंभ मेला लगभग तीन महीने तक चलता है, लेकिन सबसे बड़ी भीड़ विशेष स्नान दिवसों पर देखी जाती है। ये विशेष दिन माघ पूर्णिमा, शिवरात्रि, बसेरा स्नान, और सिंहस्थ के दिन होते हैं, जब खास अवसरों पर लाखों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।

कुंभ मेले की पौराणिक कथा

कुंभ मेले की शुरुआत पौराणिक कथा से होती है। कहा जाता है कि जब देवताओं और असुरों के बीच अमृत के लिए समुद्र मंथन हो रहा था, तो अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिरीं – प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इसलिए ये स्थान पवित्र माने जाते हैं और यहाँ हर 12 साल में कुंभ मेले का आयोजन होता है। मान्यता है कि इस अमृत की बूंदों से इन स्थलों पर स्नान करने से आत्मा की शुद्धि होती है और पापों का नाश होता है। कुंभ मेला न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का दर्पण भी है, जिसमें एक साथ आकर समाज के हर वर्ग के लोग समान रूप से भक्ति और श्रद्धा से भाग लेते हैं।

Kumbh Mela

  कुंभ मेले का महत्व

कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है, जहां भक्त, साधु-संत, नागा साधु और संत महात्मा पवित्र स्नान के लिए आते हैं। कुंभ मेले में देश-विदेश से लोग आते हैं और एक असीमित आस्था का अनुभव करते हैं। नागा साधु, जो मेला के प्रमुख आकर्षण होते हैं, अपने तपस्या, योग और साधना के कारण भक्तों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक होते हैं। वे हिमालय की कठिन तपस्या करने वाले साधु होते हैं, जो सिर्फ कुंभ मेले में दर्शन देते हैं और उनका दिखना एक दैवीय अनुभव के समान होता है। इस मेले में विभिन्न अखाड़ों के साधु संत अपने-अपने पंथों का प्रतिनिधित्व करते हैं और मेले में आध्यात्मिकता, योग, ध्यान और धार्मिक प्रवचनों के माध्यम से भक्तों का मार्गदर्शन  करते हैं।

 कुंभ मेले में स्नान का महत्व

कुंभ मेले में पवित्र स्नान का विशेष महत्व है। मेले के दौरान गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम में स्नान करना अत्यंत पवित्र माना जाता है। मान्यता है कि इस पवित्र स्नान से व्यक्ति के पाप मिट जाते हैं और उसे मोक्ष प्राप्ति का अवसर मिलता है। इस अद्वितीय स्नान का अवसर विशेष तिथियों पर होता है, जिसे “शाही स्नान” कहा जाता है। शाही स्नान के दिन नागा साधु और विभिन्न अखाड़ों के संत सबसे पहले स्नान करते हैं, इसके बाद आम भक्तों को स्नान का अवसर मिलता है। स्नान का यह अनुभव न केवल धार्मिक होता है, बल्कि यह भक्तों के लिए आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति का प्रतीक है। कुंभ मेला में विशेष तिथियों पर स्नान करने के लिए भक्त कई दिन पहले से ही यात्रा की योजना बनाते हैं और हजारों किलोमीटर की यात्रा कर मेले में पहुंचते हैं।

Kumbh Mela
mahakumbh

 कुंभ मेले का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

कुंभ मेला न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव भी है, जो सभी जाति, वर्ग और समुदायों को एक ही मंच पर एकत्र करता है। इस मेले में साधु-संतों के अलावा आम लोग, व्यापारी, शिल्पकार और सांस्कृतिक कलाकार भी भाग लेते हैं। विभिन्न राज्यों के लोग अपनी कला और संस्कृति को प्रस्तुत करते हैं। इस मेले में लगने वाले विभिन्न पंडालों में धार्मिक प्रवचन, योग शिविर, ध्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जो भक्तों को आध्यात्मिक शांति और आंतरिक शक्ति प्रदान करते हैं। इसके अलावा, कुंभ मेला व्यापार का भी एक प्रमुख केंद्र होता है, जहां विभिन्न वस्त्र, आभूषण, धार्मिक पुस्तकें, और अन्य सामग्री की बिक्री होती है।  यहाँ व्यापारी और कारीगर अपनी विशेष कलाकृतियों और शिल्पकारियों को बेचने के लिए आते हैं। इस आयोजन में लोगों को विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प और स्थानीय कलाओं को देखने और खरीदने का अवसर मिलता है।

 कुंभ मेले में यात्रा के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें

1. समय का चयन– कुंभ मेला जनवरी से मार्च तक चलता है। विशेष तिथियों पर पवित्र स्नान के दिन सबसे अधिक भीड़ होती है, इसलिए यात्रा की योजना इसी के अनुसार बनानी चाहिए।

2. आवास की व्यवस्था: कुंभ मेले के दौरान अस्थाई तंबुओं में रहने का विशेष अनुभव मिलता है, जो साधारण होटल और गेस्टहाउस से अलग होता है। हालांकि, मेले में लोगों की भीड़ बहुत होती है, इसलिए आवास की अग्रिम बुकिंग कर लेना सबसे बेहतर होता है।

3. भोजन और स्थानीय व्यंजन: मेले में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट और पारंपरिक भारतीय स्ट्रीट फूड मिलते हैं। जलेबी, चाट, पूरी-सब्जी जैसे व्यंजन तीर्थयात्रियों के बीच बहुत लोकप्रिय होते हैं। कुंभ मेले के दौरान स्थानीय भोजन का अनुभव भी एक अद्भुत आनंद देता है।

4. स्वास्थ्य और सुरक्षा व्यवस्था: कुंभ मेले में सरकार द्वारा सुरक्षा का खास ध्यान रखा जाता है। पूरे मेले में पुलिस, स्वयंसेवक और स्वास्थ्य शिविर उपलब्ध रहते हैं, ताकि किसी भी आकस्मिक स्थिति में सहायता मिल सके।

5. मुख्य स्नान तिथियाँ: यदि आप कुंभ मेले में विशेष स्नान के दिन जाना चाहते हैं, तो मुख्य स्नान तिथियों की जानकारी पहले से प्राप्त कर लें। इन दिनों में साधु-संतों का जुलूस और स्नान बहुत आकर्षक होता है, जिसे देखकर आपको मेले का पूरा अनुभव प्राप्त होगा।

 कुंभ मेले के दर्शनीय स्थल और अनुभव

कुंभ मेला केवल धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विविधता का भी प्रतीक है। यहाँ साधु-संतों के साथ-साथ नागा साधु और अन्य प्रकार के साधु-संत अपने परिधान और साधना की परंपराओं के साथ मेले में आते हैं। मेले के दौरान योग और ध्यान के कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, जो मानसिक शांति और आंतरिक संतुलन प्राप्त करने का एक अनोखा अवसर प्रदान करते हैं। कुंभ मेले में आने वाले लोगों को यह भी देखने का अवसर मिलता है कि कैसे विभिन्न अखाड़े, जो प्राचीन हिंदू परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, यहाँ एकत्र होते हैं। यह मेला केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मानवता की एकता को दर्शाता है। यहाँ आकर आप भारतीय समाज की विविधता, सहिष्णुता और एकता को महसूस कर सकते हैं। यूनेस्को ने कुंभ मेले को अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वर्णित किया है। अतः हम समझ सकते हैं कि महाकुंभ मेला सांस्कृतिक रूप से कितनी उत्कृष्टता को समेटे हुए है।

2025 में महाकुंभ– उत्तर प्रदेश के प्रयागराग में 13 जनवरी 2025 से महाकुंभ की शुरुआत होगी और इस मेले के दौरान देश विदेश से लाखों लोग पवित्र स्नान और अद्वितीय आध्यात्मिक का अनुभव कर सकेंगे.

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छठ पूजा: जानिए आस्था और समर्पण के लोक पर्व के बारे में

छठ की शुरुआत: नहाय-खाय की पवित्रता से होती है

खरना: छठ का दूसरा और महत्वपूर्ण दिन

दूसरा दिन, जिसे खरनाके नाम से जाना जाता है, पर्व का सबसे कठिन और विशेष दिन माना जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं और शाम को सूर्यास्त के बाद खीर, चावल की रोटी और केला का प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह प्रसाद शुद्धता और भक्ति का प्रतीक होता है और इसमें परिवार सदस्य भी शामिल होते हैं। खरना की रात व्रती निर्जल रहते हैं और अगली सुबह तक बिना कुछ खाए-पीए रहते हैं। यह व्रत सिर्फ आस्था नहीं, बल्कि आत्मसंयम और तपस्या का प्रतीक है, जो हमें जीवन में अनुशासन और त्याग का महत्व सिखाता है।

संध्या अर्घ्य: डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा

तीसरे दिन की शाम को संध्या अर्घ्य का विधान होता है। इस दिन व्रती अपने परिवार और समाज के साथ नदी या तालाब के किनारे जाकर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। सूर्यास्त का यह समय जीवन में उतार-चढ़ाव और संघर्षों को अपनाने की प्रेरणा देता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देना यह सिखाता है कि जीवन में सुख-दुःख दोनों को अपनाना चाहिए। यहाँ पर श्रद्धालु एक-दूसरे को प्रसाद बाँटते हैं और अपने रिश्तों को सशक्त बनाते हैं। संध्या अर्घ्य का यह अनुष्ठान सिखाता है कि समर्पण और विनम्रता ही सच्ची शक्ति है।

Chhath Puja

उषा अर्घ्य: उगते सूर्य की आराधना

Chhath Puja five colors of travel

छठ और पौराणिक मान्यताएं

हमारी पौराणिक कहानियों और मान्यताओं के अनुसार, सबसे पहले छठ त्रेता युग में देवी सीता ने किया था। कहते हैं प्रभु श्रीराम ने सूर्य नारायण देव की आराधना की थी। इसके अलावा छठी मैया की पूजा से जुड़ी एक और कहानी राजा प्रियंवद से भी जुडी है, जिन्होंने सबसे पहले छठी मैया की आराधना की थी। इस लोक प्रिय छठ महापर्व पर माँ अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य के लिए सूर्य देव और छठी मैया की पूजा-अर्चना करती है। गौर करने लायक बात यह है इस व्रत के दौरान महिलाएं 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं। शायद यही वजह है कि इस व्रत को देश के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है।

Chhath Puja

छठ का प्रसाद: शुद्धता और आस्था का प्रतीक

Chhath Puja

छठ: समर्पण, आस्था और परंपरा का प्रतीक

छठ पूजा
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Culture Uttar Pradesh

The significance of Govardhan: A spiritual journey rooted in devotion

In this blog, we will examine the past and understand the mysteries of the Govardhan Hill, its history, myth, and meaning along with what it has always created in the hearts of a billion people.

The story of Govardhan and Lord Krishna

The story of Govardhan is intertwined with the myth of Lord Krishna, the 8th Avatar of Lord Vishnu who is the greatest God in Hinduism. It is said that in his childhood when Krishna was in Vrindavan, he saw the villagers getting ready to pay their respects to Indra – the God of Rain, in order to receive rains for their crops.

However, Krishna was not okay with this. He reasoned that there was no need to worship Indra and instead let ‘Govardhan’ the mountain sit down for worship since it was providing the villagers with fresh grass as well as fertile land instead of bringing sacrifices to idols. The hill was the very personification of nature, which nourished the people living there.

The making of Annakut shows the richness and fertility and the items on the platter are then offered as prasad to the believers. Many temples throughout the nation organize a lot of the food to be offered to Krishna, with the intention of serving it to people in the community and thus ethics of charity and social togetherness is illustrated. The commemoration is not only focused on performing the religious practices but it is part of the very practices focused on sustainability and eco-friendliness. The occasions are marked with very extravagant celebrations in many temples such as the Banke Bihari Temple that is found in Vrindavan, where the singing, dancing, and devotion of the people can be seen.

Govardhan Parikrama

Significance of Govardhan

The Govardhan Parikrama or the circumambulation of the hill is one of the primary ways of showing reverence to, love for and devotion to the Govardhan. Every year, thousands of devotees make this circumambulation of 21 kilometres around the hill, as a form of faith, austerity and purification of the soul.

The pilgrimage in question is not only a physical one but a deeply meditative one as well. While walking barefoot on the course, devotees recite prayers and sing devotional bhajans (songs); they bathe themselves in spirituality that helps them reach God. An inward gaze is released through many such journeys, self-imposed restrictions are erased and appreciation for Krishna’s care and Mother Nature in all its forms is vocalize

The route features many halts such as Radha Kund and Shyam Kund, the sacred ponds of Radha and Krishna, the Danghati Temple, where devotees worship Lord Krishna who lifted the holy mountain of Govardhan. Devotees usually believe that intenTionally or with unblemished heart, if Parikrama is performed, prayer will be answered, sins will be washed away, richness will be attained and ultimate salvation will be realized.

 The Significance and Teachings Associated with Govardhan

The narrative regarding Govardhan is not merely a story of fantasy that is prevalent in Hinduism. It has very strong and deep meaning and lessons which uplift the mankind even in this age.

1. Reverence for Nature

Govardhan Hill teaches us of the significance of nature and ecology. Krishna not only lifted the hill to shield his people but also preached that humanity must love and honor nature as it is the mother of all. This lesson is of utmost importance in the twenty-first century considering the ecological issues the planet is undergoing. In the case of Govardhan Puja, which mostly involves people giving food prepared with harvested grains and other foods, this worship reminds of the bounty of the soil and the need to take care of nature.

2. Humility and the Power of Faith

Similarly, the hill that Krishna lifted does signify faith in humility, which is quite powerful. The villagers braved the anger of Indra and were not aided by cleverness, strength or any such thing, but by Krishna’s loving and compassionate resolve. It is a lesson that there is more force in true devotion and respect for what is sacred than there is in any empowerment of the ego.

3. Collective Unity and Devotion

The story of the Govardhan mission is a case of united faith. The people of Vrindavan were devoted to Krishna and the worship of Mother Nature, and they faced the difficulties together. The same spirit of togetherness is present in the thousands of pilgrims who participate in the Govardhan Parikrama, lending to the idea that thanks to spirituality, it is possible to join many coupled families but leave none untouched.

Govardhan Puja: A Day of Thankfulness

In northern India, especially, Govardhan Puja is observed with great zeal a day after the festival of Diwali. Devotees sculpt the image of Mount Govardhan out of cow faeces and perform cow worship in this festival by placing grains, sweets and fruits around it. Annakut, or mountain of food, is the term used to refer to this act, which is in honouring Krishna’s instruction to give respect to the earth and everything that grows on it.

Significance of Govardhan

In northern India, especially, Govardhan Puja is observed with great zeal a day after the festival of Diwali. Devotees sculpt the image of Mount Govardhan out of cow faeces and perform cow worship in this festival by placing grains, sweets and fruits around it. Annakut, or mountain of food, is the term used to refer to this act, which is in honouring Krishna’s instruction to give respect to the earth and everything that grows on it.

To make Annakut thanks giving, joyous celebration dips considerably. Devotees are then given these offerings as prasad. In temples around the world, large quantities of food are made available to Krishna after which it is distributed to society in respect to the custom of oneness and charity.

 Govardhan in the Present Age

While the tohpur is sacred. it is also instrumental in saving forests and hence people should observe the tohpur only without intervention inside nature. A number of temples, in particular the noted Banke Bihari Mandir of Vrindavan, experience merry-making with the devotees singing and dancing or engaged in other activities.

Very few regions today can as still be understood as amenable to pilgrimage in the same way that Govardhan was not just a geophysical mass. With the rise of awareness to the substrate of nature, Govardhan lessons have come into the picture again. The philosophy of Krishna is said to be similar in nature to many ideas being advanced today to save the planet for future generations. All the stories depart from this and stress the principle that individuals and society as a whole are obliged to care for nature and avoid all forms of pollution.

Significance of Govardhan

The Govardhan Parikrama still survives and thrives amongst not only religious pilgrims but tourists and seekers from all over the globe who seek its spiritual nourishment. The tranquil environment along with the historical magnificence of Mathura-Vrindavan places lots of attraction in Govardhan for not only pilgrimage purposes but also for spiritual tourism.

Govardhan is a strong icon of devotion, modesty, and respect for nature in so many ways. The tale of Lord Krishna lifting the Govardhan Hill has always encouraged people, even from olden times, to maintain balance in both man and earth. Whether it is through the Govardhan Puja festival or the Parikrama pilgrimage, these devotees also draw from these values, looking for spiritual wholeness and for the grace of the God.

With the increasing fret regarding the environment, it is the lessons of Govardhan which act as a useful reminder that it is quite impossible to think of the wellbeing of the people without caring for the wellbeing of the environment in which they reside. In this context, Govardhan is much more than a place of worship—it is an active and impactful narrative of the elements of faith, society and ecology that has defied time.

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Culture Uttar Pradesh

Dev Deepawali 2024: A Divine Celebration in Varanasi

The significance of Deepawali in Varanasi

Dev Deepawali

Diwali is the Festival of Lights, where people pray to Goddess Lakshmi and offer their prayers with devotion on November 1, 2024. There is a reason behind the scheduled celebrations for Varanasi’s piecing up during Diwali. The ghats of the city which extend along the sacred river Ganga are dazzling as the devotees get together and illuminate the river banks with diyas to welcome back Lord Rama from his exile back in Ayodhya.

Kashi Vishwanath temple prepares sumptuous feasts and conducts elaborate aarti ceremonies. Different cuisine is provided on every street in rangoli, and sounds of bursting crackers can be heard, bringing together the divine and the chaotic.

‘After Diwali, Dev Deepawali’

Exactly fifteen days after Diwali on November 15, 2024 April, another fascinating festival takes place in Varanasi: Dev Deepawali. Hindu belief has it that this day signifies the return of the gods from heaven to the physical world in honor of the defeat of the demon, Tripurasura, by Lord Shiva. The celebration of this festival is within Kartik Purnima, which is the last day of the month of Kartik in the lunar calendar for Hindus and it is a very auspicious one.

The ghats of Varanasi, more especially the Dashashwamedh Ghat, is one place worth looking out for at this time. The river banks are filled with millions of oil lamps creating a river of flames on the surface of the water. This evening’s Ganga Aarti is quite impressive, and attracts lots of people, quite in thousands, with their chants and hymns resounding in the array of waters. Every single person in the city at that moment can be compared to an artist holding a paintbrush in hand and a white canvas which symbolizes the sky in which the divine dwells above the earthly city.

Dev Deepawali

 Varanasi: The Eternal City

Varanasi is not a city, but rather spiritual Benares, as is commonly referred to. Situated on the western banks of the Ganga, Varanasi is among the oldest inhabited cities in the history of mankind, Varanasi being in India. It has been a place of interest for Hindu institution as various temples and shrines ensure constant influx of faithful over the year.

Dev Deepawali

Describing Varanasi during Diwali or Dev Deepawali is not only about its decorative and expensive colors. The spirituality can be felt anywhere – be it the priests performing Ganga Aarti, devotees offering prayers in the waters or ghats filled with lit diyas. Places such of this in Benaras which erase your every other thought apart from abiding and experiencing its spirituality do exist.

Dev Deepawali

 Dev Deepawali 2024: A Visual and Spiritual Treat

If Dev Deepawali 2024 is celebrated so, then it is as if the region of Varanasi can be known in its most celestial state. The observance commences when devout Hindus deck the place with lights and lamps at twilight, but the real drama is when the moon makes its appearance. The reflection of the moon on the sacred river Ganga along with the flame of the lamps in the Gensburg, gives the view of the city an enchanting look.

Travelers and pilgrims alike can also participate in Ganga Mahotsav, a five-day festival scheduled by the Tourism Board of Uttar Pradesh concerning the best of Indian Classical music, dance, and handlooms. The festival, which also marks the end of the city’s Dev Deepawali celebrations, quite illustrates how the city handles both the age old practices and modern day festivities.

Planning Your Visit

In case you are inclined towards being in Varanasi during the Dev Deepawali celebrations in the year 2024, an early accommodation booking is a necessity. This is because the whole city turns out to be a base of full activity and all the hotels and guest houses are booked. Local tour companies like Shiva Kashi Travels provide well organized plans including local tours, boat rides during evening aarti on the Ganga and so on.

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Destination Food Gujrat Haryana

The diagonal division: Rice Vs Roti in Indian culinary landscape

Rice Vs Roti

Let us explore this interesting division in more detail.

Diagonal illustration

The imaginary diagonal dividing India into rice-eating and bread-eating areas begins approximately from Punjab in the northwest. It cuts through the heart of India to Orissa and stretches southeast to Tamil Nadu, although there are always exceptions and overlaps. Where is the bread or the basis of the daily diet?

 Rice dominating states

Rice Vs Roti

1. South India

The states Tamil Nadu, Kerala, Andhra Pradesh, Telangana and Karnataka form the southern part of this divide. of which rice is king South Indian food is synonymous with rice-based dishes like idli, dosa, biryani. and sambar rice Abundant rainfall and favourable weather conditions make the region suitable for rice cultivation. This explains the uniqueness of the local cuisine.

 2. Northeast India.

The states Assam, Arunachal Pradesh, Manipur, Meghalaya, Mizoram, Nagaland, Tripura are also heavily dependent on rice e.g. together The fertile valleys and mountainous regions of the Brahmaputra are suitable for rice cultivation. Rice is eaten with fish, vegetables and fermented foods and is an important part of the traditional diet.

3. West Bengal and Orissa

West Bengal and Orissa are regions where rice plays an important role in daily life. in Bengal Rice is eaten with various curries, lentils, and fish. Food in Orissa is also rice-based. And it is often served with dalma. (cooked lentils with vegetables) and pakla (fermented rice)

 4. East Central India

Rice is prominent in states like Bihar, Jharkhand and parts of Chhattisgarh especially in rural areas. Although wheat is also consumed (in the form of chapati), but rice makes up the majority of the food. especially in agricultural communities

 Roti Dominating States

 1. Northern India

Rice Vs Roti

2. Rajasthan

Rice cultivation is restricted due to lack of water during the dry season. Rajasthan makes wheat-based food the main source of sustenance Bajra Roti (flat bread in pearl millet) and Missi Roti. (spiced flatbread made from wheat and gram flour) is common in Rajasthani households.

3. Western India

Rice vs. Roti

Gujarat and Madhya Pradesh prefer to eat bread more than rice. Even though rice is sometimes consumed in small amounts. Popular dishes in Gujarati are rotla (millet kati bread) and thepla (spiced flatbread), often served with pickles and buttermilk.

 4. Northern Indian city

Bread is commonly found in the city centre of Uttar Pradesh and Bihar while rice remains popular in rural areas. Switching to a bread-based diet in urban areas It reflects broader trends in urban wheat consumption. This may be due to the ease of preparing chapati and lifestyle changes…

 Why the divide?

The main factors behind this divide are geography and agriculture. Rice growing areas in the southeast and northeast of India have more conducive climates for growing rice. Monsoon season and irrigation facilities support rice fields. Make rice the main crop

On the other hand, wheat cultivation is popular in the northwestern region of India. which has a warmer and drier climate Wheat grows well in the fertile plains of Punjab, Haryana and Uttar Pradesh where the winter crop is grown. As a result, chapati or bread made from wheat has become a staple food in these areas. In addition to agriculture Historical influences and trade routes have shaped the dietary habits of these regions. For example, the arrival of Persian and Mughal culinary traditions in the north and west gave rise to flatbread and shaped wheat dishes. New style Makes the popularity of bread more and more…

The diagonal lines that demarcate India’s rice and bread diets provide an interesting lens through which to understand the country’s diverse food culture. This divide is rooted in geography, agriculture, and history. It has shaped the daily lives and recipes of millions of people. Although the lines may be blurred in the modern era, But the cultural importance of rice in the south and east and roti in the northwest It remains a prominent feature of the Indian culinary landscape…

Whether it is to taste delicious rice with sambar in Tamil Nadu. Or enjoy freshly made rotis with ghee in Punjabi. Indian food traditions are also a delicious reminder of its diversity.

Research by- Khushi Aggarwal/Edited by-Pardeep Kumar

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Bazar Culture

धनतेरस-जानिए क्यों है खरीददारी का सबसे उत्तम समय

वैसे तो देश में पूरे साल तीज-त्योहारों का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन जैसे ही अक्टूबर का महीना दस्तक देता है, मानो उत्सवों की एक बहार सी आ जाती है। अक्टूबर की शुरुआत नवरात्रि से होती है और फिर इन खुशियों का कारवां महीनों चलता रहता है। फाइव कलर्स ऑफ़ ट्रेवल के इस ब्लॉग में हम बात करेंगे धनतेरस की, जिसे दीवाली से दो दिन पहले मनाया जाता है।

 1. क्या हैं धनतेरस के मायने ?

धनतेरस दो लफ्ज़ों से मिलकर बना है—धन यानी दौलत, और तेरस मतलब तेरहवीं तारीख़। यह दिन दीवाली के दो दिन पहले आता है और देवी लक्ष्मी की पूजा से जुड़ा होता है, जो धन और समृद्धि की मल्लिका मानी जाती हैं। इस दिन लोहे, चांदी, सोने या बरतनों की ख़रीदारी को बहुत मुबारक माना जाता है।

 2 . आयुर्वेद और धनतेरस का रिश्ता

 3 . धनतेरस दिवाली से दो दिन पहले क्यों मनाया जाता है?

पुरानी मान्यताओं के मुताबिक, समुद्र मंथन के चौदहवें दिन भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का प्याला लिए प्रकट हुए थे। चूंकि वे प्याला लेकर समुद्र से निकले थे, इसीलिए इस दिन बरतन ख़रीदना शुभ माना जाता है। भगवान धन्वंतरि के प्रकट होने के दो दिन बाद देवी लक्ष्मी भी समुद्र से निकली थीं, और इस वजह से दीवाली से दो दिन पहले धनतेरस का त्यौहार मनाया जाता है।

 4 . धनतेरस पर क्या चीज़ सबसे ज्यादा खरीदी जाती है?

हमारे देश के लोग अपनी तहज़ीब और धर्म में विशेष आस्था रखते हैं। धनतेरस के दिन लोहा, चांदी, सोना, या बरतन ख़रीदना बेहद शुभ माना जाता है। खासतौर पर पीतल, स्टील या चांदी के बरतन ख़रीदने का दस्तूर है, क्योंकि भगवान धन्वंतरि भी अमृत से भरा कलश लेकर प्रकट हुए थे। इस दिन घर में कोई भी नई चीज़ लाना घर में बरकत और खुशहाली लाता है। हिंदू धर्म ग्रंथों के मुताबिक, यह एक शुभ रिवाज़ है।

5 . भगवान धन्वंतरि और चिकित्सा विज्ञान

हमारे देश में हमेशा से यह माना गया है कि सेहत सबसे बड़ी दौलत है। इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के तौर पर मनाया जाता है। भगवान धन्वंतरि, जिन्हें भगवान विष्णु का अंश माना जाता है, उन्होंने चिकित्सा विज्ञान का परचम लहराया था। इस दिन घर के बाहर दीए जलाने का दस्तूर है, जो सुकून और लंबी उम्र का तोहफा देता है।

6 . देवी-देवताओं की पूजा का रिवाज

धनतेरस के दिन सिर्फ देवी लक्ष्मी और धन्वंतरि की पूजा नहीं होती, बल्कि धन वैभव के देवता कुबेर और यमराज की भी पूजा की जाती है। हर प्रार्थना के पीछे एक अलग कहानी है, लेकिन मकसद एक ही है—घर में सुकून, दौलत और सेहत का आना।

7 . धनतेरस की पौराणिक कहानी

एक बार यमराज ने अपने फरिश्तों से पूछा कि क्या कभी किसी इंसान की जान लेते वक्त तुम्हें तरस आया है? फरिश्तों ने जवाब दिया, “महाराज, हम तो बस आपके हुक्म का पालन करते हैं।” लेकिन फिर यमराज ने पूछा, “कभी किसी इंसान की जान लेते वक्त तुम्हारा दिल पसीजा है?” तब एक फरिश्ते ने कहा, “हां, एक बार ऐसा वाकया हुआ था।” फरिश्ते ने कहानी सुनाई कि एक बार राजा हेम के घर एक बेटे का जन्म हुआ। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि उसकी शादी के चार दिन बाद उसकी मौत हो जाएगी। राजा ने अपने बेटे को एक गुफा में ब्रह्मचारी के रूप में रखा, जहां कोई औरत उसकी परछाई तक न देख सके। लेकिन एक दिन राजा हंस की बेटी उस गुफा तक पहुंच गई और दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। शादी के चार दिन बाद वही हुआ जो ज्योतिषियों ने कहा था, उस बेटे की मौत हो गई। फरिश्ता कहता है कि उस नवविवाहिता के दर्द भरे विलाप को देखकर उनका दिल पिघल गया था। यह सुनने के बाद यमराज ने कहा, “यह तो तक़दीर का फैसला है।” लेकिन उन्होंने एक हल दिया कि जो लोग धनतेरस के दिन पूजा और दीपदान करते हैं, उन्हें अकाल मृत्यु से निजात मिलती है।

8. दीपदान की अहमियत: दिए जलाओ, घर में रोशनी और बरकत लाओ

इसलिए, धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि, माता लक्ष्मी, कुबेर और यमराज की प्रार्थना की जाती है, और दीपदान किया जाता है, ताकि घर में दौलत के साथ-साथ सेहत और लंबी उम्र का आशीर्वाद हासिल हो

 9 . धनतेरस और इकॉनमी का बूस्ट

धनतेरस के दिन खरीदारी का यह सिलसिला सिर्फ व्यक्तिगत समृद्धि तक सीमित नहीं है; यह हमारी अर्थव्यवस्था को भी बूस्ट करता है। जब लोग इस दिन सोने, चांदी और अन्य बहुमूल्य वस्तुओं की ख़रीदारी करते हैं, तो इससे बाजार में तेजी आती है। व्यापारियों के लिए यह एक सुनहरा अवसर होता है, और इससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं। इस प्रकार, धनतेरस न केवल व्यक्तिगत समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि हमारे समाज और अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण है। जब खरीदारी होती है, तो बाजार में हलचल बढ़ती है, जिससे व्यापारियों, कारीगरों और दुकानदारों का जीवन भी रोशन होता है। इस तरह, धनतेरस का यह त्यौहार हमें आर्थिक मजबूती की दिशा में भी एक कदम बढ़ाता है।

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