केरल भारत का एक छोटा सा और सुंदर प्रदेश है। जो अपनी संस्कृति और मनोरम आवरण के लिए मशहूर है। पूरे देश और विदेशों से लोग यहाँ घूमने आते हैं और वे केरल की संस्कृति से दो चार होते हैं। समझते है, परखते हैं कुछ चीजों को आत्मसात भी करते हैं। यह तो मनुष्य का नेचर है, जो वह देखता है, सुनता है, पढ़ता उसे ही प्राथमिकता देने लगता है। भारत का हरेक क्षेत्र अपनी कला, संगीत, नृत्य और परंपराओं के लिए अपनी एक खास पहचान बनाता है। ऐसा कहा जाता है कि केरल “ईश्वर का अपना देश है” इस छोटे और सुन्दर से प्रदेश में बहुत सी चीजें ऐसी हैं जो हमारा ध्यान अपनी और खींचती हैं। (थिरुवाथिरा)
केरल की इस ही पहचान का अभिन्न हिस्सा है “थिरुवाथिराकाली” केरल का पारंपरिक नृत्य। जितना कठिन यह शब्द आपको पढ़ने में लगेगा, यह मानिए उतना ही अच्छा यह नृत्य करने और देखने में लगता है। यह पारंपरिक नृत्य बस एक सामान्य नृत्य नहीं है बल्कि यह नृत्य केरल की कला का एक अद्भुत नमूना है, साथ ही साथ यह नृत्य सामाजिक एकता और नारी शक्ति का प्रतीक माना जाता है।


थिरुवाथिरा नृत्य को इतना खास क्यों माना जाता है?
थिरुवाथिराकाली के नाम से जाना जाने बाले इस नृत्य को काली या थिरुवाथिरा के नाम से भी जाना जाता है। इस नृत्य को इसलिए एक खास दायरे में रखा गया है की सबसे पहले तो यह नृत्य एक सामूहिक नृत्य है, जिसे मुख्य तौर पर महिलाएं ही प्रस्तुत करती हैं। थिरुवाथिरा इस नृत्य को ज्यादातर एक विशेष और खास मौकों या उत्सवों पर किया जाता है, जिनमें ओडम और थिरुवाथिरा हुए। यह केरल में मनाए जाने वाले अनोखे और पारंपरिक उत्सव हैं।
इस नृत्य का नाम थिरुवाथिरा इसलिए पड़ा क्योंकि जो मलयालम केलेंडर है, उसमें एक नक्षत्र का नाम थिरुवाथिरा नक्षत्र है। जिसे मार्गजी या फिर मार्गशीर्ष कहा जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है की यह नृत्य भगवान शिव और पार्वती के लिए समर्पित माना जाता है। नृत्य की जो मुद्राएं होती है, देखने पर नजर का हटना संभव ही नहीं है। क्योंकि नृत्य करते समय जो महिलाओं का तालमेल होता है, वास्तव में दर्शकों का ध्यान बांधकर रखता है। पूर्ण मानसिक भाव से कहा जाए तो यह नृत्य केवल मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि इस नृत्य में सामाजिक बंधनों, नारी शक्ति और सबसे खास अध्यात्म का समावेश है।
इतिहास की चर्चाओं में कहाँ है थिरुवाथिरा नृत्य?
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस नृत्य को माता पार्वती और उनकी सखियों के द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट होता है की इस थिरुवाथिरा नृत्य का संबंध भगवान शिव और पार्वती से है। लेकिन विवाद का विषय तब बन जाता है, जब कुछ कथाओं में यह मिलता है की भगवान कृष्ण की भक्ति में गोपियों इस नृत्य को करती थीं। इस नृत्य की सबसे मनोरम बात यह है की नृत्य में जो सादगी का भाव होता है, वह सबसे अनमोल और रोमांच से भरपूर होता है। महिलाएं नृत्य की पोशाक धारण करती हैं तो मानो ऐसा लगता है जैसे अफसराएं स्वर्ग से उतर आई हो।

हालांकि नृत्य को खुले मैदान जैसे मंदिरों के परिसर या फिर आँगनों में किया जाता है क्योंकि 8 से 10 महिलाओं को व्रत बनाकर नृत्य करना होता है। यही व्रत सामाजिक एकता को दर्शाता है। नृत्य में प्रस्तुत लय बेहद कोमल और लयबद्ध होती है। इसमें प्रयुक ताल कैकट्टीकाली और कुंभम होती है। जो नृत्य को धीमा बनाती है, जो दर्शकों को खूब भाता है। असल में इस नृत्य में चहरे के भाव और हाथों से बनाई जाने मुद्राएं ही अहम रोल अदा करती हैं, सारा का सारा खेल ही इन्ही भाव भंगिमाओं का है।
संगीत है तो नृत्य है..
अद्भुत और कहने योग्य बात यह है की इस पूरे नृत्य के दौरान जो चीज आपको जोड़े रखती है वह है संगीत। यदि नृत्य में संगीत नदारद रहा फिर तो बात अधूरी ही मानिए। या फिर नृत्य को रूखा-सूखा कहा जा सकता है । नहीं नहीं! जब नृत्य आज भी इतना प्रासंगिक है तो जाहिर सी बात है, संगीत का प्रयोग तो होता ही होगा। तो इस नृत्य में जो संगीत अपनी भूमिका अदा करता है वह हैं मलयालम लोकगीत, जिनको थिरुवाथिरा पट्टु के नाम से संबोधित किया जाता है।
इसमें प्रयुक्त अधिकतर गीत प्रेम, भक्ति और प्रकृति से प्रेरित होते हैं। और वाद्ययंत्रों के रूप में इड़क्का एवं तालम का उपयोग किया जाता है। इस नृत्य में वेशभूषा के भी अपने मायने हैं। जैसे नृतकियाँ इस नृत्य के दौरान साड़ी पहनती हैं जो आमतौर पर सफेद होती हैं। जिनके छोड़ों पर सुनहरी किनारी होती है, जिसे वे कसावु कहते हैं। यह सफेद साड़ी पवित्रता और समृद्धि का प्रतीक मानी जा सकती हैं। इस साड़ी को जिस तरीके से पहना जाता है, वह तरीका उनकी पारंपरिक वेशभूषा का परिचायक होता है।
कैसे अपनी पहचान बरकरार रख पाने में सक्षम है केरल
एक बात तो में भूलने ही बाला था, शुक्र खुदा का जो खुदबखुद याद आ गया। नर्तकियाँ का जो श्रंगार है उसे आज के मॉडर्न मेकप से अलग मानिए क्योंकि, इस नृत्य में शामिल नर्तकियाँ अक्सर प्राकृतिक शृंगार करती हैं। जैसे बालों को जूड़े के रूप में बांधना और उसी जूड़े में ताजे और सुगंध से भरपूर चमेली के फूल सजाना। इस नृत्य की शुरुआत वास्तव में मनोरम होती है, जैसे सबसे पहले कोई भक्ति गीत होता है जो भगवान शिव और आदिशक्ति माँ पार्वती को समर्पित होता है। इसके बाद नर्तकियाँ धीरे-धीरे गोल चक्र बनाकर तालियाँ बजाती हैं और अपने पैरों को क्रमशः आगे पीछे करती हैं। पैर बिल्कुल ताल के समन्वय पर आगे पीछे होते हैं।

आज विशेष तौर पर इस नृत्य को स्कूलों, कॉलेजों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाने लगा है। और अब न सिर्फ यह नृत्य केरल में बल्कि पूरे देश में इस नृत्य को पसंद किया जाता रहा है और किया जाता है। वास्तविकता तो यही है की थिरुवाथिरा मात्र एक नृत्य नहीं है बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। कई बार कुछ विडिओ या रील देखने को मिल जाती है, जिसमें कोई फॉरनर महिला इस नृत्य को करती हुई दिखती है, तो मन प्रफुल्लित हो उठता है।
संस्कृति का संरक्षण प्रेरणा का स्त्रोत
इससे यह साबित होता है की इस नृत्य ने आज भी अपनी इस पहचान को बरकरार रखा है और कई तरीकों के माध्यम से आज इस नृत्य की कलाओं में वे अपनी पीड़ी को पारंगत करने की कोशिश में हैं। इससे संस्कृति वास्तव में संरक्षित होती है और इसमें कोई संकोच नहीं की केरल ने अपनी संस्कृति बचाए रखने के लिए प्रयास किए हैं। प्रयास नहीं बल्कि सुचारु व सकारात्मक कदम उठा आज यह प्रदेश अपनी संस्कृति और पर्यावरण की खूबसूरती पर इठला रहा है। दूसरे राज्यों को प्रेरणा लेनी चाहिए, ताकि वे भी इठला सकें अपनी पहचान पर, अपनी संस्कृति पर।









