कभी कभी हम निकले तो होते हैं कहीं और जाने के लिए, मगर कहीं और के लिए मुड़ जाते हैं, किसी और रास्ते या किसी नई मंजिल की ओर बढ़ जाते हैं। ऐसा ही एक किस्सा रहा सफदरजंग मकबरा! जहाँ जाना शायद तय था मगर हम उससे अंजान थे। तो आइए, आज चलते हैं एक नए सफर और उस सफर से बनी नई और कभी न भूली जाने वाली यादों की नदी में डुबकी लगाने।
सफदरजंग मकबरा, जो कि भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है। इसका निर्माण सफदरजंग के बेटे नवाब शुजाउद्दौला ने अपने पिता, जो कि मुगल सम्राट मोहम्मद शाह के शासनकाल में अवध के वायसराय थे, की याद में करवाया गया। इसे 1754 में बनाया गया था।
यह मकबरा मुगल वास्तुकला की प्रसिद्ध चार बाग शैली में बना है और इसे मुगलों का अंतिम स्मारक माना जाता है। मकबरे में सफेद संगमरमर और बलुआ पत्थर का प्रयोग हुआ है एवं इसके चारों ओर बगीचा है।

इसकी वास्तुकला हुमायूं के मकबरे के समान लगती है, और इसे एक इथियोपियाई वास्तुकार ने डिजाइन किया था। ये मकबरा ए.एस.आई. के 174 संरक्षित स्मारकों में से एक है।
रविवार की सैर.. सफदरजंग मकबरा
जब घर में बैठे बैठे आप थोड़ा ऊब गए हों और आप देखते हों कि आज तो रविवार है तो क्यूं न कहीं चल ही लिया जाए। तो ऐसे ही एक दिन काफी समय बाद मैं भी चल पड़ी अपने मम्मी पापा के साथ। हम गए तो थे रोहिणी स्थित काली मंदिर, लेकिन जब घर से निकले ही थे तो बस एक दिन दिल्ली के नाम करके हम घूमते फिरते पहुँच गए इस खूबसूरत स्मारक के सामने से, जिसकी सुन्दरता मन को मोहने वाली प्रतीत होती थी, मगर जितना सुन्दर यह मकबरा प्रतीत हो रहा था उससे कहीं ज्यादा मनमोहक था।


जैसे ही हम अंदर कुछ कदम चले तो हमें बताया गया कि टिकट काउंटर से टिकट लेकर अंदर जाना होगा तो आप पहले टिकट लें। फिर क्या हमने तीन टिकट लिए और अंदर चल दिए। मैं थोड़ा ऐसी जगहों और फोटोग्राफी से ऑब्सेस्ड हूं, तो दरवाजे से ही इस मकबरे का इस प्रकार दिखाई देना मुझे अंदर से कह रहा था जैसे इसको तो कैप्चर करना बनता है। फिर यहीं से मैंने उन सुन्दर दृश्यों को कैमरे में कैद करना शुरू कर दिया। फिर हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो वहां से हम इस मकबरे को बहुत ही स्पष्ट देख सकते थे।
फूलों के बागान और वो हर तरफ बस खुशनुमा माहौल
चारों ओर हरियाली, कहीं बड़े बड़े पेड़ तो कहीं फूलों के बागान, हर तरफ बस खुशनुमा माहौल मानो जैसे पूरे दिन की थकान उतारने के लिए यहां आना काफी था। इसी दौरान मैंने एक चीज देखी और समझी भी कि हमेशा आपके जीवन में कोई आपके साथ हो ऐसा जरुरी नहीं होता। कभी कभी जीवन के उतार चढ़ाव, जीवन की तपत और ठंड आपको अकेले ही हर प्रकार की परिस्थितियों को सहने लायक बना देती है। और उस पड़ाव पर आपको महसूस होता है कि कोई है तो बेहतर, नहीं है तो भी बेहतर और आप निकल पड़ते हो अपने जीवन को जीने, जीवन की बारीकियों पर थोड़ा काम करके उन्हें और खूबसूरत बनाने।

तो ये प्रसंग एक व्यक्ति के सन्दर्भ में मुझे याद रहा जिन्हें मैं जानती तो नहीं थी मगर वो मुझे जीवन के विषय में बहुत अच्छी और बहुत गहरी बात बिन कुछ कहे सिखा गए। मैंने इतना जरूर जाना कि वो व्यक्ति वहां अकेले आए हुए थे और जितना वक्त मैं वहां थी उतने वक्त के दौरान मैंने उनको वहां अकेले आनंदित होते देखा, बिना किसी को कहे खुद ही अपनी तस्वीरें लेना और उन्हें देखना।
जिससे मैंने जाना कि अकेले रह कर भी जिंदगी को अगर हम चाहें तो बहुत अच्छे से जी सकते हैं, बिना किसी से किसी तरह की कोई उम्मीद रखे, बिना किसी को किसी चीज के लिए तंग करे, हां! अगर हम दिल से चाहें तो खुलकर और खुश होकर जी सकते हैं।
दिल पर रखो हाथ और बेख़ौफ़ उड़ चलो
आइए अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं, जब हम मकबरे की पहली मंजिल पर पहुंचे जहां से बहुत ही खूबसूरत दृश्य दिखाई दे रहे थे। चारों तरफ पर्यटकों की भीड़, कहीं कोई कुछ खेल रहा था तो कहीं कुछ लोग तस्वीरें और वीडियो बना रहे थे, तो कुछ लोग बस एक जगह बैठ कर प्रकृति कि खूबसूरती को निहार रहे थे और कुछ होंगे मेरी तरह उलझन में कि इतना सुंदर दृश्य! तस्वीरें लें या बैठकर बस आस पास के वातावरण को निहारें। कभी कभी हमें समझ नहीं आता कि किस परिस्थिति में क्या करें तो वहां अपने दिल पर हाथ रखकर जो वो कह रहा हो उसकी सुनो और बस बेखौफ कर लो, पछतावा नहीं रहेगा, कि जो हमने किया वो ठीक था या नहीं।


थोड़ी देर मैं बस आस पास सबको ध्यान से देखने लगी, उसके बाद अपनी यादों के पिटारे में संजोए रखने के लिए कुछ तस्वीरें लेने लगी। जिनमें सबसे खूबसूरत याद रही एक झरोखे से अपने मम्मी पापा की तस्वीर लेना, जहां मुझे पता था कि अगर थोड़ा सा भी गलत हुआ तो फोन सीधा नीचे गिर सकता है। मगर जब इरादे पक्के हों तो मुश्किलों को हार माननी पड़ती है।


तो उस तस्वीर के लिए बशीर साहब का शेर याद आता है-
कि तलाश करूं तो कोई मिल ही जाएगा,
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझको चाहेगा ।
कि चाहतों से देखेगा जरुर तुमको कोई,
मगर वो आंखे हमारी कहां से लाएगा।
इस जगह की तस्वीरें जरा कम थीं, मगर यादें.. थोड़ी ज़्यादा!
पेड़ों के पीछे छिपता हुआ सूरज, अंत शुरुआत से ज़्यादा खूबसूरत
तो जब हम वहां से निकलने को थे तब सूर्यास्त का समय हो रहा था। पेड़ों के पीछे छिपता हुआ सूरज जैसे कुछ समझा रहा था, शायद यह कि कभी कभी अंत शुरुआत से ज़्यादा खूबसूरत होता है या यह कि हर दिन की भाग दौड़ में हम जरुर कुछ नया सीखते हैं, जो हमारे अनुभवों के दायरों को बढ़ाता है।

और अगर आपके पास समय है तो दिन ढलने के बाद यहां रुक कर और भी मनोरम दृश्य देखा जा सकता है क्योंकि शाम के समय लाइट्स जलने के बाद इसके सौंदर्य में चार चाँद लग जाते हैं, जो कि समय की कमी के कारण हम नहीं देख पाए। मगर ऐसी जगहों पर जाने के बाद मन कह रहा होता है कि थोड़ी देर और, बस थोड़ी देर और।
तो अगर आप भी कभी यहां आने की योजना बना रहे हैं तो दिन ढलने तक जरुर रुकना और उस सौंदर्य का दीदार जरुर करना और कुछ वक्त बस बैठ कर अपने आस पास सब महसूस करना। कुछ चीजें आपको कुछ नया सिखाएंगी, कुछ आपको हंसाएगी और कुछ आपका दिन बना देंगी।









