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सर्दियां आते ही क्यों हरेक की जुबान पर कश्मीरी पश्मीना का नाम होता है? क्या है इसकी खासियत?

कश्मीर की पश्मीना, बर्फ़ में बुनी गरमाहट की अनमोल दास्तान

इतिहास की तहों में लिपटी नर्मी

कश्मीर की पश्मीना

कश्मीर की पश्मीना का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी पुरानी उसकी बर्फ़ीली चोटियां। माना जाता है कि 15वीं सदी में यह कला तैमूरलंग के शासनकाल में पर्शिया यानी ईरान से भारत आई थी। लेकिन कश्मीर ने इस कला को नया जीवन दिया है। यहां के कारीगरों ने पश्मीना को सिर्फ एक कपड़ा नहीं रहने दिया उन्होंने इसे एक भाव बना दिया है। कहा जाता है की मुगल बादशाह अकबर को पश्मीना शॉल बेहद प्रिय थी। ऐसा भी माना जाता है कि उनके दरबार में यह शॉल शाही पहचान का प्रतीक बन गई थी। अकबर ने कश्मीर में पश्मीना उद्योग को संरक्षण दिया और यहीं से इसका स्वर्ण युग शुरू हुआ। वह समय था जब हर रेशे में कारीगर की आत्मा बसती थी। पश्मीना शॉलें इतनी महीन होती थीं कि उन्हें अंगूठी में से पार किया जा सकता था। यही कारण था कि इसे “रिंग शॉल” भी कहा गया। अंग्रेज़ काल में जब यूरोप में कश्मीरी पश्मीना पहुंची, तो वहां के कुलीन वर्ग ने इसे राजसी फैशन का हिस्सा बना लिया। यहां तक की फ्रांस, इंग्लैंड और रूस तक में कश्मीर की पश्मीना ‘लक्ज़री’ का पर्याय बन गई थी।

चांगथांगी बकरियों से कश्मीरी करघे तक की यात्रा

कश्मीर की पश्मीना

पश्मीना का असली जादू उसकी यात्रा में छिपा है लद्दाख की ऊंचाईयों से लेकर श्रीनगर के करघों तक की लंबी, मेहनती और भावनात्मक यात्रा। हर पश्मीना शॉल कई हाथों से होकर गुजरती है। सबसे पहले, बकरियों के ऊन को सर्दी के बाद बड़े ध्यान से निकाला जाता है, जिसे “कांघी” कहा जाता है। फिर उस ऊन को साफ़ कर, कंघी कर महीन धागों में काता जाता है। यह काम हाथ से होता है बिना किसी मशीन के। जब यह धागा तैयार हो जाता है, तो उसे करघों तक भेजा जाता है। वहां, कारीगर घंटों नहीं, बल्कि हफ़्तों तक एक ही शॉल पर मेहनत करता है। हर धागे को ध्यान से बुनना, रंगना और पैटर्न में पिरोना यही कला की असली पहचान है। कश्मीरी करघे सिर्फ लकड़ी के नहीं होते, वे भावनाओं से बने होते हैं। उन पर झुककर काम करते कारीगर के चेहरे पर जो सुकून होता है, वास्तव में वही पश्मीना की आत्मा है।(पश्मीना शब्द फारसी भाषा के शब्द “पश्म” से बना है, जिसका अर्थ होता है “कोमल ऊन”।)

कारीगरी का करिश्मा हर धागे की एक अलग दास्तान

कश्मीर की पश्मीना

कश्मीर की पश्मीना सिर्फ ऊन नहीं, बल्कि कला की एक जीवंत तस्वीर है। हर शॉल में एक कहानी छिपी होती है कभी कारीगर की बेटी के सपनों की, कभी उसकी मां के हाथों की दुआओं की। जब कारीगर ‘कनी वर्क’ या ‘सोज़नी’ करता है, तो यह मानिए की वह धागे नहीं, भावनाएं बुनता है। ‘कनी’ शॉल में लकड़ी की छोटी-छोटी सुइयों से पैटर्न बनाए जाते हैं, जबकि ‘सोज़नी’ एम्ब्रॉयडरी में महीन सुई और रंगीन धागों से फूल, बेलें और मुग़ल शैली के डिज़ाइन उकेरे जाते हैं। इन शॉलों की पहचान उनकी “सौम्यता” है न बहुत चमकीली, न बहुत फीकी, बस एक नर्मी जो देखने वाले को छू जाए। यही कारण है कि असली पश्मीना की पहचान उसके एहसास से होती है, न कि उसके टैग से। आज भी कई कारीगर उसी पारंपरिक तकनीक से शॉल बनाते हैं जो उनके पूर्वजों ने सिखाई थी। हर पीढ़ी इस कला को आगे बढ़ाती है जैसे कोई विरासत नहीं, बल्कि इबादत हो

कश्मीर की आत्मा, पश्मीना की नर्मी एक शॉल जो दिल छू ले

कश्मीर की पश्मीना

समय के साथ जब दुनिया तेज़ हुई, तो पश्मीना का बाज़ार भी मशीनों और नकली ऊन से भर गया। बाज़ार में मिलने वाली “पश्मीना” शॉलों में से ज़्यादातर वास्तव में असली नहीं होतीं थी। असली पश्मीना को पहचानना आसान नहीं है। वह हल्की होती है, सांस लेने योग्य होती है और स्पर्श में रेशमी नहीं बल्कि बादलों जैसी लगती है। असली पश्मीना में किसी भी तरह का सिंथेटिक चमक नहीं होती। कश्मीरी कारीगरों के लिए यह सबसे बड़ा संकट है उनकी मेहनत को सस्ती नकली चीज़ों से तुलना करना उनके दिल पर चोट करता है। लेकिन असली प्रेमी अभी भी जानते हैं कि असली पश्मीना सिर्फ कपड़ा नहीं एक अनुभव है। यही कारण है कि आज भी विदेशी पर्यटक जब श्रीनगर के पुराने बाज़ारों में जाते हैं, तो असली पश्मीना की तलाश में घंटों दुकान-दुकान घूमते हैं। वहां जब एक बुजुर्ग कारीगर शॉल को हाथ में लेकर कहता है, “यह गरमाहट बकरियों से नहीं, दिल से आती है”, तो सुनने वाला मुस्कुरा देता है।

दुनिया के फ़ैशन रैंप से दिलों की अलमारी तक

कश्मीर की पश्मीना

कभी सिर्फ राजघरानों की पहचान रही पश्मीना, आज दुनिया के हर कोने में फैशन का प्रतीक बन चुकी है। पेरिस, लंदन और मिलान जैसे फैशन शहरों में जब मॉडल्स पश्मीना ओढ़कर रैंप पर उतरती हैं, तो दर्शकों को कश्मीर की वादियां याद आती हैं। डिजाइनर्स इसे हर मौसम में प्रयोग करते हैं कभी जैकेट्स में, कभी स्कार्फ़ में, तो कभी गाउन में। लेकिन जो बात पश्मीना को सबसे अलग बनाती है, वह है उसकी सादगी। यह शॉल बिना शोर किए अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। एक हल्की सी पश्मीना किसी भी लिबास को शाही बना सकती है। यही वजह है कि बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक, यह शॉल ग्लैमर का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन कश्मीर की गलियों में, जहां इसे बुना जाता है, वहां यह अब भी वही पुरानी नर्मी रखती है एक सच्ची गरमाहट, जो शोहरत से परे है।

भविष्य की धूप जब परंपरा मिलती है नए दौर से

कश्मीर की पश्मीना

कश्मीर की पश्मीना आज नए दौर की दहलीज पर खड़ी है। एक ओर आधुनिक तकनीक, मशीनें और बाज़ार हैं, तो दूसरी ओर वे कारीगर जिनके हाथों में सदियों की कहानी है। सरकार और कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अब इस कला को “जीआई टैग” Geographical Indication के माध्यम से संरक्षित कर रही हैं ताकि असली कश्मीरी पश्मीना की पहचान बनी रहे। इससे न सिर्फ कारीगरों की आजीविका सुरक्षित होती है, बल्कि कश्मीर की संस्कृति को भी सम्मान मिलता है। युवा पीढ़ी अब इस पारंपरिक कला को डिजिटल माध्यम से दुनिया तक पहुंचा रही है। इंस्टाग्राम और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए असली कश्मीरी शॉल अब सीधे कारीगरों से लोगों तक पहुंच रही हैं। यह बदलाव उम्मीद जगाता है कि पश्मीना का जादू कभी खत्म नहीं होगा। क्योंकि जब तक दुनिया में ठंड होगी, जब तक दिलों में कला जिंदा होगी, तब तक पश्मीना की गरमाहट भी ज़िंदा रहेगी।

हर एक धागा, जो दिल से जुड़ता है

कश्मीर की पश्मीना

कश्मीर की पश्मीना सिर्फ एक कपड़ा नहीं यह एक अहसास है। जब आप इसे ओढ़ते हैं, तो आपको सिर्फ ऊन की नर्मी नहीं, बल्कि कारीगर की मेहनत, कश्मीर की हवा और हिमालय की ठंडक भी महसूस होती है। हर पश्मीना शॉल एक कहानी सुनाती है धैर्य, समर्पण और प्रेम की कहानी। कश्मीर की वादियों में अब भी जब कोई कारीगर करघे पर बैठकर पश्मीना बुनता है, तो उसकी उंगलियां सिर्फ धागे नहीं चलातीं वे इतिहास को वर्तमान में बदलती हैं। पश्मीना सिर्फ कश्मीर की शान नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है।

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Hello! I Pardeep Kumar

मुख्यतः मैं एक मीडिया शिक्षक हूँ, लेकिन हमेशा कुछ नया और रचनात्मक करने की फ़िराक में रहता हूं।

लम्बे सफर पर चलते-चलते बीच राह किसी ढ़ाबे पर कड़क चाय पीने की तलब हमेशा मुझे ज़िंदा बनाये रखती
है।

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