भारत का हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में स्थित है सांची, जो रायसेन जिले के अंतर्गत आता है। जिसका निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। सांची अपनी कलाकृतियों से पर्यटकों को भावविभोर करता है। इसकी कलाकृतियों में जुड़े चार शेर वाला राष्ट्रीय चिह्न यही से लिया गया है। जिसको आप रुपयों, बैंको और अन्य सरकारी चीजों पर देखते हैं। इस ब्लॉग में हम साँची के स्तूप के विषय में बेहद जरुरी और दिलचस्प तथ्यों के बारे में बात करेंगे (Stupa of Sanchi)

मुख्य रूप से इसका उपयोग सरकारी मुहर लगाने में या पासपोर्ट पर मुद्रित किए जाने में होता है। इस चार शेर वाले चिह्न को 26 जनवरी 1950 को अपनाया गया था। किसी भी निजी संस्था द्वारा इसका उपयोग करना दंडनीय हो सकता है। इस राष्ट्रीय चिह्न में हम तीन ही शेर देख पाते हैं। दरअसल, चारों शेर अपनी पीठ जोड़कर खड़े हुए हैं, जिसके चलते हमेशा एक शेर पीछे हो जाता है, जिसे हम नहीं देख पाते हैं। इन शेरों के पैरों के नीचे एक चक्र गढ़ा हुआ है जो तथागत बुद्ध के पहले उपदेश का साक्षी है जिसको धर्मोपदेश प्रवर्तन या धम्मचक्र प्रवर्तन पूर्णिमा कहा जाता है। यह चक्र तब का प्रतीक है, जब तथागत ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला धर्म का उपदेश दिया था। तथागत का पहला धर्म उपदेश आज के उत्तरप्रदेश राज्य के सारनाथ में दिया गया था। वहां भी सम्राट अशोक ने एक अलौकिक बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। जो आज अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लोगों को अपनी और आकर्षित करता है।
सांची के स्तूप अपने आप में एक रहस्य हैं, जो कई प्रयासों के बाबजूद भी रहस्य ही बने हुए हैं। सांची स्तूप 91 मीटर ऊंची पहाड़ी की शिखर पर बना हुआ है। जो कई एकड़ जमीन में फैला हुआ है। स्तूप शब्द का निर्माण “थूप” शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ होता था मिट्टी से गुथा हुआ।
विश्व विरासत स्थल और सम्राट अशोक से जुड़ा है साँची का स्तूप
सांची को यूनेस्को द्वारा सन् 1989 में विश्व विरासत घोषित कर दिया। यहां पर मुख्य स्तूप के अलावा 92 अन्य छोटे बड़े स्तूप हैं । एतिहासिक दृष्टिकोण से हमें पता है कि कलिंग युद्ध जोकि 261 ई० पू० सम्राट अशोक और कलिंग राजा पद्मनाभन के बीच हुआ था। इसी युद्ध के विजय के बाद सम्राट अशोक ने युद्ध में देखी त्रासदी से युद्ध का रास्ता त्यागकर बुद्ध का रास्ता अपना लिया। जिसके बाद सम्राट अशोक ने एक भी युद्ध नहीं किया और वह शांति प्रिय बन गए। इसी के बाद सम्राट अशोक ने अखंड भारत में 84,000 हजार बौद्ध स्तूपों को बनवाया था। क्योंकि उस समय तक भारत टुकड़ों में विभाजित नहीं था। जिनमें से एक महत्वपूर्ण स्तूप है, हमारा सांची का स्तूप।
जिसकी खोज सन 1818 में जर्नल टेलर के द्वारा की गई थी। जर्नल टेलर को यह स्तूप उस दौरान दिखा था, जब वह शिकार करने के लिए निकले थे। उस समय यह स्तूप जर्जर हालत में था। जिसका अग्रेजों के नेतृत्व में इसकी मरम्मत कर इसका पुनः निर्माण किया गया।
तोरणद्वार
स्तूप एक गुंबदाकार आकृति होती है, इस सांची के मुख्य प्रथम स्तूप में 4 तोरणद्वार बने हुए हैं ।असल में तोरणद्वार स्वागत करने के लिए बनवाए जाते थे। यह चारों तोरणद्वार चार रास्ते हैं जो स्तूप को सुशोभित करते हैं। सांची स्तूप में लगे तोरणद्वार अपने आप में बौद्ध इतिहास को समेटे हुए है। इनके शीर्ष पर पंख वाले शेर बने हुए हैं, जिनको गिरफिन सिंह भी कहा जाता है। जो दोनों ओर अपना मुंह किए हुए हैं और एक दूसरे को पीठ दिखाते हैं। इन पंख लगाए शेरों के बारे में हमने पौराणिक काल में पढ़ा है। जो शायद एक काल्पनिक रचनाएं हैं।

इस तोरण पर महिला महावत के साक्ष्य मिलते हैं। जिसके द्वारा हमें यह समझने में आसानी होती है कि मौर्य काल में या बौद्ध काल में महिलाएं भी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चला करती थीं। इसके अलावा इस पर बकरे की सवारी के चित्र भी गढ़े हुए हैं।
स्तूप में भगवान बौद्ध की कई छोटी बड़ी मूर्तियां आज भी स्थापित हैं, और कई मूर्तियां खंडित भी हो चुकी हैं। इस स्तूप की नक्काशीदार बनाबट पर्यटकों का मन मोह लेती है। यहां पर्यटक देश से तो आते ही हैं, इसके अलावा विदेशी पर्यटकों की संख्या भी बहुत है। तोरणद्वार पर वह सभी दर्शाया गया है जो भगवान गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है। इस तोरणद्वार पर भगवान बुद्ध का जन्म, बौद्धिवृक्ष, धर्मोपदेश, ग्रह त्याग और अन्य घटनाएं जो भगवान बुद्ध के जीवन में घटी हैं।भगवान बुद्ध के कई उपदेश यहां पर गढ़े हुए हैं, जो की पाली भाषा में हैं। बुद्ध के कई उपदेश, जातक कथाएं पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में उद्रत हैं। जिसको 1838 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था।

इस स्तूप में तीन मुख्य स्तूप हैं। जिनमें दो स्तूप पास में हैं और एक अन्य स्तूप थोड़ी दूरी पर। पहला और तीसरा स्तूप एक दूसरे से कम दूरी पर हैं, लेकिन दूसरा स्तूप कुछ मीटर दूर है। दूसरे स्तूप में एक ही तोरणद्वार है, परंतु इसकी खास बात यह है कि इसमें दस वरिष्ठ गुरुओं की अस्थियां रखी हुई हैं। स्तूप के मुख्य प्रथम स्तूप में तोरणद्वार के बिल्कुल पास में एक अशोक स्तंभ खड़ा हुआ था। जो अब गिर चुका है कहा जाता है यह स्तूप एक जमींदार ने गन्ने पीसने की चक्की बनाने के लिए तोड़वा दिया था। स्तूप में एक तहग्रह है जहां आज भी भगवान बुद्ध की अस्थियां संभालकर रखी गई हैं। इस तहग्रह में जाना वर्जित है। इस तहग्रह की चाबी रायसेन कलेक्टर के पास होती है। इन अस्थियों के दर्शन आप नवंबर के महीने में कर सकते हैं, क्योंकि नवंबर के महीने में यहां मेला लगता है।
उस समय इस तहग्रह को खोल दिया जाता है। इस अस्थियों के संदूक को अस्ति मंजूषा कहा जाता है। इन अस्थियों को अंग्रेजों के समय में लंदन भेज दिया गया था। लेकिन वहां से इसे वापस लाया गया और यह आज सांची स्तूप में सुशोभित हैं। यह पूरा स्तूप बलुआ पत्थर से बना हुआ है। जिसको उदयगिरी से लाया जाता था, परंतु जो अशोक स्तंभ है उसका निर्माण मिर्जापुर से लाए गए पत्थर से किया गया था। जिसकी ऊंचाई 42 फीट थी। कहा जाता सांची सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र का ननिहाल था । सांची के स्तूप से सारी पुत्र मुद्गलाइन भी जुड़े हुए हैं।
विंध्य की पर्वत पर स्थित इस स्तूप की नीव सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ई० पू० रखी और उसने इसे ईंटो और मिट्टी से निर्मित करवाया था। जिसके बाद, मौर्य वंश के अन्य एक शासक अग्निमित्र द्वारा पत्थरों से निर्मित करवाया गया। स्तूप के शीर्ष पर हार्निका बनी हुई है जो विश्व के सबसे ऊंचे पर्वत का प्रतीक है, गुंबदाकार स्तूप के अंदर एक कक्ष होता है, जहां पर अस्थियां रखी रखी हुई हैं।
कैसे पहुंचे साँची स्तूप
सांची पहुंचने के लिए भोपाल जोकि मध्यप्रदेश की राजधानी है, से आप टैक्सी या केब के द्वारा पहुंच सकते हैं। इसके अलावा रेल यात्रा कर भी आप यहां तक पहुंच सकते हैं। सांची का स्वयं का रेलवे स्टेशन सांची रेलवे स्टेशन है, जो देश के अन्य हिस्सों से भी जुड़ा हुआ है।
हवाई यात्रा के द्वारा आप सांची पहुंचना चाहते हैं तो, राजा भोज हवाई अड्डा यहां से सबसे निकटतम हवाई अड्डा है। चूंकि आप बस से यात्रा करना चाहते हैं तो सबसे नजदीक रायसेन बस स्टॉप के माध्यम से आप सांची की यात्रा कर सकते हैं।
खुलने का समय सुबह 6:00 बजे से शाम के 6:00 बजे तक है। घूमने का सबसे अच्छा समय सुबह या शाम का है। जिस समय आप बगैर धूप के इस पर्यटन स्थल का अच्छे से दौरा कर पाएंगे ।