दिवारी पर्व की झलक खुशियों का अद्भुत उत्सव
मध्यप्रदेश का दिवारी नृत्य – भारत त्यौहारों की भूमि है और मध्यप्रदेश की मिट्टी तो खासतौर पर लोक परंपराओं से भरी हुई है। इन्हीं परंपराओं में एक अनोखा और मनमोहक पर्व है “दिवारी”, जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पर्व दीपावली के ठीक बाद आता है और मुख्य रूप से बुंदेलखंड, मालवा, निमाड़, बघेलखंड और महाकौशल के गांवों में धूमधाम से मनाया जाता है। दीवारी सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि यह कृषक जीवन, लोककला, लोकगीत, नृत्य और पारंपरिक परिधान का एक अद्भुत संगम है।

इस त्यौहार का सबसे बड़ा आकर्षण है दिवारी गीत, दिवारी नृत्यऔर दिवारी पोशाक, जो गांवों के हर चौपाल में रौनक भर देते हैं। खेतों में फसल लहलहाती है, लोग एक-दूसरे को दीवारी की शुभकामनाएं देते हैं और गांव के गलियारों में ‘दीवारी आई रे…’ की गूंज सुनाई देती है।(इस नृत्य को स्थानीय भाषा में कई जगह “दीवारी डांस” या “गौरैया नाच” कहा जाता है।)
दीवारी गीत मिट्टी की खुशबू से सजे सुर

दीवारी के गीतों में ग्रामीण जीवन की सच्ची तस्वीर झलकती है। इन गीतों को गाते समय किसी बड़े मंच या वाद्ययंत्र की जरूरत नहीं होती बल्कि यह गीत खेतों, चौपालों और मंदिरों में लोक वाद्यों जैसे ढोलक, मंजीरा, नगाड़ा और थाली की ताल पर गाए जाते हैं। इन गीतों के बोल बेहद सरल होते हैं, लेकिन इनमें आस्था, प्रेम,परिश्रम और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की गहराई छिपी होती है।

महिलाएं और पुरुष दोनों मिलकर ये गीत गाते हैं, जिनमें भगवान कृष्ण, बलराम, राम और स्थानीय देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है। कुछ गीतों में कृषक जीवन की झलक होती है, तो कुछ में पशुधन की महत्ता को दर्शाया जाता है। एक लोकप्रिय दिवारी गीत कुछ इस प्रकार है

“दीवारी आई रे, गौरा गइया सजाई रे,
गोवर्धन धर्यो नंदलाल,
धन्य भई अइंया री दीवारी रे…”
इन गीतों में गांव की एकता, प्रेम और सहयोग की भावना झलकती है। हर सुर में मानो धरती की लय, हल की गूंज और बैलों की चाल बस जाती है।

दीवारी नृत्य ऊर्जा और उल्लास का अद्भुत संगम
यह दिवारी का सबसे मनोरम दृश्य होता है इसका नृत्य, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं। यह नृत्य मुख्यत पुरुषों द्वारा किया जाता है, और इसमें ढाल, तलवार और लकड़ी की छड़ी का प्रयोग किया जाता है। इस नृत्य को स्थानीय भाषा में कई जगह “दीवारी डांस” या “गौरैया नाच” कहा जाता है। नर्तक सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ियां बांधते हैं और सफेद धोती-कुर्ता पहनकर समूह में गोलाकार होकर नाचते हैं। उनके कदमों की थाप ढोलक की लय के साथ तालमेल बिठाती है।

दीवारी नृत्य में वीरता, उत्साह और पारंपरिक अनुशासन झलकता है। एक दूसरे के डंडे से डंडा पीटा जाता है और इस तरह एक ले में की देखते ही रहो ।यह नृत्य उस समय की याद दिलाता है जब गांवों में युद्धक प्रशिक्षण के रूप में भी ऐसे नृत्य किए जाते थे। इस नृत्य में समूह एक साथ चलकर ढाल और तलवारटकराते हुए ताल बनाते हैं, जिससे पूरा वातावरण झंकार से भर जाता है। कभी-कभी इसमें ढाल नृत्य, भाला नृत्य और दांडी नृत्य जैसी शैलियां भी सम्मिलित की जाती हैं।
दिवारी पारंपरिक पोशाक और रंगों का त्यौहार

मध्यप्रदेश की दीवारी सिर्फ संगीत और नृत्य तक सीमित नहीं है; बल्कि इसमें पहने जाने वाले पारंपरिक वस्त्र और आभूषण भी इस पर्व को विशेष बनाते हैं। पुरुषों के पहनावे में सफेद धोती, अंगरखा, लाल या केसरिया पगड़ी, और कमर में कच्चापटका शामिल होता है। कुछ जगहों पर वे कमर में घंटियाँ भी बांधते हैं ताकि नृत्य के दौरान मधुर ध्वनि गूंजे।

महिलाएं इस अवसर पर लाल, हरे, पीले रंग की चिरई या लुगड़ा पहनती हैं, और अपने सिर को ओढ़नी से ढकती हैं। हाथों में चूड़ियां, पैरों में पायल, माथे पर बिंदी और गले में पारंपरिक हार उनकी सुंदरता को और बढ़ा देते हैं। इन पोशाकों के रंग ग्रामीण जीवन की सादगी के साथ-साथ प्रकृति के रंगों से मेल खाते हैं। यही वजह है कि दीवारी का हर दृश्य मानो एक जीवंत पेंटिंग बन जाता है।

दिवारी का सांस्कृतिक महत्व क्या है?
दीवारी का सबसे बड़ा संदेश है परिश्रम, सहयोग और कृतज्ञता। किसान जब अपनी फसल काट लेता है और गोवंश की सेवा करता है, तो वह यह पर्व मनाकर भगवान का धन्यवाद करता है। यह त्यौहार ग्रामीण समाज में एकता और भाईचारे को मजबूत करता है। दिवारी गीत और नृत्य, केवल मनोरंजन के साधन नहीं बल्कि यह लोक संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति हैं।

इनसे नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों की परंपरा औरजीवन दर्शन का ज्ञान मिलता है। मध्यप्रदेश के कई जिलों जैसे सागर, दमोह,छतरपुर, टीकमगढ़, रीवा, सतना और खंडवा में दिवारी आज भी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है। यह पर्व लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ता है, और ग्रामीण संस्कृति को जीवित रखता है।

दीवारी में लोक वाद्यों की भूमिका
दिवारी गीत और नृत्य को जीवंत बनाने में लोक वाद्य यंत्रों की अहम भूमिका होती है। इनमें मुख्य रूप से ढोलक, नगाड़ा, मंजीरा, थाली, ढपली, बांसुरी और बीन का प्रयोग किया जाता है। ढोलक की थाप पर नर्तक अपने कदम मिलाते हैं, मंजीरे की झंकार लय बनाती है, और नगाड़े की गूंज पूरे गांव में उत्सव का माहौल पैदा करती है। मुख्य रूप से इस नृत्य में लठठ यानी बांस के डंडों का उपयोग किया जाता है। वाद्ययंत्र बजाने वाले कलाकार कोई पेशेवर नहीं होते, बल्कि गांव के ही किसान,चरवाहे या कारीगर होते हैं। यही इस कला की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें हर कोई कलाकार बन जाता है।

आधुनिक समय में दिवारी की पहचान और संरक्षण
आज जब आधुनिकता और शहरों की भागदौड़ ने लोक परंपराओं को धीरे-धीरे पीछे धकेल दिया है, ऐसे में दीवारी जैसा पर्व हमारी लोक धरोहर का जीवंत प्रमाण है।
राज्य सरकार और स्थानीय सांस्कृतिक संगठन अब इस पर्व को बढ़ावा देने के लिए लोक उत्सवों और मेलों का आयोजन करते हैं, ताकि नई पीढ़ी इसकी सुंदरता और महत्व को समझ सके। टीवी चैनल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी दिवारी नृत्य और गीतों के वीडियो लाखों लोग देखते हैं, जिससे इसकी लोकप्रियता बढ़ रहीहै।

युवा कलाकार अब इसे अपने फ्यूजन म्यूजिक और फोक डांस फेस्टिवल्स में शामिल कर रहे हैं। यदि इस परंपरा को सही दिशा में संरक्षित किया जाए तो यह केवल मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश की लोक पहचान बन सकती है। दीवारी हमें याद दिलाती है कि सच्ची खुशी केवल रोशनी या आतिशबाजी में नहीं, बल्कि मिट्टीकी महक, लोकगीतों के सुर और नृत्य की थाप में छिपी है।

दीवारी लोक संस्कृति की आत्मा कैसे बनी?
दीवारी पर्व मध्यप्रदेश के ग्रामीण जीवन की आत्मा है। इसमें गीत हैं जो मन को भिगोते हैं, नृत्य हैं जो तन को झूमाते हैं, और परिधान हैं जो आंखों को सुकून देते हैं। यह पर्व केवल भगवान के प्रति श्रद्धा का प्रतीक नहीं, बल्कि यह उस जीवन दर्शन का उत्सव है जिसमें प्रकृति, मेहनत और आनंद का समन्वय है। जब दीवारी आती है, तो गांव की गलियों में केवल रोशनी नहीं जगमगाती, बल्कि मनुष्यता, प्रेम और लोक संस्कृति की ज्योति भी प्रज्वलित होती है।









