छठ का महापर्व हर बिहार वासी के दिल में बसा होता है। चाहे वो देश के किसी भी कोने में हों या विदेश में, छठ के दिनों में उनका मन अपने गाँव-घर की ओर लौटने को व्याकुल हो उठता है। यह पर्व केवल पूजा नहीं, बल्कि यादों का एक ऐसा कारवां है जो उन्हें अपने बचपन के उन घाटों की और ले जाता है, जिसके किनारे उन्होंने अपनी माँ, दादी या चाची को पूरे समर्पण भाव के साथ सूर्य देवता और छठी माई की पूजा करते देखा था। वही घाट, वही नदी, वही परंपरा— सब कुछ उन्हें फिर से घर की ओर बुलाता है। अगर देख जाए तो आम तौर पर छठ पूजा बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रमुख त्यौहार है। लेकिन क्योंकि अब देश के हर हिस्से में बिहार के लोग रोज़गार के सिलसिले में बसने लगे हैं तो अब यह त्यौहार दिल्ली, मुंबई और अन्य बड़े महानगरों में भी खूब श्रद्धा भाव से मनाया जाने लगा है. आज इस ब्लॉग में हम जानेंगे इस लोक पर्व को कैसे मनाया जाता है और महिलाएं कितनी शिद्दत के साथ इस व्रत के नियमों का पालन करती हैं….(Chhath Puja)
विभिन पंचांगों के अनुसार हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से छठ पूजा का आरंभ हो जाता है। छठ पूजा पर्व चार दिनों तक चलता है। दीपावली खत्म होते ही घरों में छठ गीतों से माहौल बनने लगता है।
छठ की शुरुआत: नहाय-खाय की पवित्रता से होती है

छठ पूजा का पहला दिन, जिसे ‘नहाय-खाय’ कहा जाता है, पवित्रता और शुद्धता का प्रतीक है। इस दिन व्रती (व्रत करने वाले) किसी पवित्र नदी, तालाब या कुंड में स्नान कर घर आते हैं और सात्विक भोजन करते हैं। इस भोजन में लौकी की सब्जी, चने की दाल और भात होता है। इस दिन का खास महत्व है, क्योंकि यह शुद्धि और तपस्या के संकल्प का पहला चरण है। यह दिन आत्मशुद्धि की प्रेरणा देता है और मन को पवित्र बनाने का अवसर प्रदान करता है।
खरना: छठ का दूसरा और महत्वपूर्ण दिन
दूसरा दिन, जिसे खरनाके नाम से जाना जाता है, पर्व का सबसे कठिन और विशेष दिन माना जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं और शाम को सूर्यास्त के बाद खीर, चावल की रोटी और केला का प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह प्रसाद शुद्धता और भक्ति का प्रतीक होता है और इसमें परिवार सदस्य भी शामिल होते हैं। खरना की रात व्रती निर्जल रहते हैं और अगली सुबह तक बिना कुछ खाए-पीए रहते हैं। यह व्रत सिर्फ आस्था नहीं, बल्कि आत्मसंयम और तपस्या का प्रतीक है, जो हमें जीवन में अनुशासन और त्याग का महत्व सिखाता है।
संध्या अर्घ्य: डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा
तीसरे दिन की शाम को संध्या अर्घ्य का विधान होता है। इस दिन व्रती अपने परिवार और समाज के साथ नदी या तालाब के किनारे जाकर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। सूर्यास्त का यह समय जीवन में उतार-चढ़ाव और संघर्षों को अपनाने की प्रेरणा देता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देना यह सिखाता है कि जीवन में सुख-दुःख दोनों को अपनाना चाहिए। यहाँ पर श्रद्धालु एक-दूसरे को प्रसाद बाँटते हैं और अपने रिश्तों को सशक्त बनाते हैं। संध्या अर्घ्य का यह अनुष्ठान सिखाता है कि समर्पण और विनम्रता ही सच्ची शक्ति है।

उषा अर्घ्य: उगते सूर्य की आराधना
चौथे और अंतिम दिन, सूर्योदय के समय उषा अर्घ्य अर्पण किया जाता है। व्रती सूरज की पहली किरण के साथ जल में खड़े होकर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं और अपने जीवन की सभी मनोकामनाओं के पूर्ण होने की प्रार्थना करते हैं। इस अनुष्ठान के बाद ही व्रती का व्रत पूरा होता है। उगते हुए सूर्य की यह पूजा नई आशाओं, नई ऊर्जा और सकारात्मकता की ओर प्रेरित करती है।

छठ और पौराणिक मान्यताएं
हमारी पौराणिक कहानियों और मान्यताओं के अनुसार, सबसे पहले छठ त्रेता युग में देवी सीता ने किया था। कहते हैं प्रभु श्रीराम ने सूर्य नारायण देव की आराधना की थी। इसके अलावा छठी मैया की पूजा से जुड़ी एक और कहानी राजा प्रियंवद से भी जुडी है, जिन्होंने सबसे पहले छठी मैया की आराधना की थी। इस लोक प्रिय छठ महापर्व पर माँ अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य के लिए सूर्य देव और छठी मैया की पूजा-अर्चना करती है। गौर करने लायक बात यह है इस व्रत के दौरान महिलाएं 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं। शायद यही वजह है कि इस व्रत को देश के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है।

छठ का प्रसाद: शुद्धता और आस्था का प्रतीक

छठ पूजा का प्रसाद विशेष रूप से गुड़, नारियल, ठेकुआ, और केले से तैयार होता है। यह प्रसाद केवल एक भोजन नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की श्रद्धा और प्रेम का प्रतीक है। इसे बनाते समय व्रती पूरे नियम और शुद्धता का पालन करते हैं, जिससे इसका महत्व और बढ़ जाता है। प्रसाद का वितरण इस पर्व की सामूहिकता और भाईचारे का प्रतीक है, जो सभी को एक साथ जोड़ता है।
छठ: समर्पण, आस्था और परंपरा का प्रतीक

छठ पूजा हमें सिखाती है कि भक्ति केवल एक पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति प्रेम, परिवार के प्रति समर्पण और समाज के प्रति जिम्मेदारी का एहसास है। यह पर्व न केवल हमें हमारे मूल से जोड़ता है, बल्कि हमें यह भी याद दिलाता है कि जीवन में कठिनाइयों के बीच भी आस्था का दीप जलाए रखना चाहिए। छठ पर्व की यह चार दिन की यात्रा हमें अपनी जड़ों से जोड़ती है और हमें याद दिलाती है कि सच्ची भक्ति और तपस्या ही जीवन को सार्थक बनाती है। चाहे कहीं भी हों, एक बिहारी का मन छठ के समय अपने गाँव की ओर दौड़ पड़ता है, जहाँ उसके बचपन की यादें और अपने लोगों का प्यार उसे वापस बुलाते हैं।