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झारखंड का सरहुल उत्सव सिखाता है प्रकृति से प्रेम करना, जानिए कैसे?

झारखंड एक बेहद खूबसूरत प्रदेश है। इसी खूबसूरत प्रदेश में एक ऐसा त्यौहार है जिसका प्रकृति के साथ गहरा नाता है। सरहुल नाम का यह उत्सव आदिवासी समुदायों का सबसे बडा जश्न है। और यह चैत्र महीने में मनाया जाता है, जब साल के पेडों पर नई कोपलें फूटती हैं। सरहुल का मतलब है साल पेड़ की पूजा। यह त्यौहार आदिवासी जनजातियों के लिए नया साल की शुरुआत माना जाता है। इसे खुशी, समृद्धि और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक कहा जाता है।

वैसे तो सरहुल की कहानी बहुत पुरानी है। कुछ किंवदंतियां इसे महाभारत काल से जोडती हैं। कहा जाता है कि महाभारत में जब पांडव वनवास में थे, तो उन्होंने साल पेड की पूजा की थी। लेकिन मुख्य रूप से यह आदिवासी संस्कृति से जुडा हुआ है। झारखंड के आदिवासी लोग प्रकृति को देवता मानते हैं। सिर झारखंड के नहीं बल्कि पूरे देश के दुनिया के आदिवासी प्रकृति को ही अपना देवता मानते हैं। साल का पेड़ उनके लिए जीवन का आधार है। यह पेड़ जंगल की रक्षा करता है और फल फूल देता है। सरहुल में साल की पूजा से वे प्रकृति से आशीर्वाद मांगते हैं। और तीन दिन के इस त्योहार में वे खूब आनंद से इस त्यौहार को मनाते हैं। चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि से शुरू होकर पूर्णिमा तक यह चलता है।

सरहुल

गांव का पुजारी, जिसे पहान कहते हैं, मुख्य भूमिका निभाता है। वह जंगल में जाकर साल के फूल लाता है। फूलों को देखकर वह बताता है कि साल कैसा रहेगा। अगर फूल ज्यादा हैं, तो अच्छी फसल होगी।

उनकी यह मान्यता लोगों को उत्साह से भर देती है। सरहुल की खास बात यह है कि झारखंड के गांवों में सरहुल की तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है। लोग नए कपडे सिलवाते हैं, घर साफ करते हैं। इसके अलावा यह त्यौहार सिर्फ जश्न नहीं, बल्कि समुदाय की एकता को बढ़ावा देता है। सरहुल के दौरान लोग मिलकर नाचते गाते हैं। वास्तव में यह उत्सव हमें सिखाता है कि प्रकृति से जुडना कितना जरूरी है। आज की दुनिया में जहां पर्यावरण का नुकसान हो रहा है, सरहुल जैसा त्यौहार हमें याद दिलाता है कि पेड पौधे हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं। वैसे तो कई कहानियां सरहुल से जुडी हैं। एक कथा है कि साल देवता ने आदिवासियों की रक्षा की थी। इसलिए वे उसकी पूजा करते हैं। दरअसल यह त्यौहार झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर है। यह हमें बताता है कि आदिवासी जीवन कितना प्रकृति से जुडा है। सरहुल सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव है। यह हमें खुशी और समृद्धि की कामना करना सिखाता है।

सरहुल में पूजा का तरीका बहुत खास है। यह त्यौहार प्रकृति को धन्यवाद देने का माध्यम है। गांव का पहान जंगल में जाता है। वह साल पेड के नीचे पूजा करता है। मुर्गी की बलि देता है और फूल लाता है। इन फूलों को सरना स्थल पर लाकर पूजा की जाती है। सरना आदिवासियों का पवित्र स्थान है, जहां वे देवताओं की पूजा करते हैं। पहान फूलों को देखकर भविष्य बताता है। अगर फूल सफेद और ताजा हैं, तो साल अच्छा होगा। लोग खुशी से चिल्लाते हैं। फिर फूलों को गांव में बांटा जाता है। हर घर में फूल रखे जाते हैं। यह रस्म समृद्धि लाती है। महिलाएं पारंपरिक कपडे पहनती हैं। वे साडी जैसे वस्त्र पहनती हैं, जिन पर फूलों की डिजाइन होती है। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते हैं। पूजा के बाद नाच गाने शुरू होते हैं। लोग ढोल और नगाडे बजाते हैं। सच में आप भी देखना कभी आदिवासी नृत्य कमाल का होता है। वे हाथ पकडकर घेरा बनाते हैं और मजे के साथ नृत्य गाते हैं। गीत प्रकृति और जीवन पर होते हैं। यह दृश्य बिल्कुल देखने लायक होता है। बच्चे से लेकर बूढे तक सभी इसमें भाग लेते हैं।

रस्मों में बलि भी दी जाती है। मुर्गी या बकरी की बलि से देवता खुश होते हैं। फिर प्रसाद बांटा जाता है। ज्यादातर इस प्रसाद में चावल, गुड और फल होते हैं। फिर सभी लोग मिलकर इस प्रसाद को खाते हैं। यह रस्म एकता बढाती है। और सरहुल में कोई भेदभाव नहीं होता। सब मिलजुलकर एक साथ जश्न मनाते हैं। सरहुल का यह त्यौहार हमें सिखाता है कि प्रकृति का सम्मान करना कितना जरूरी है। आज की दुनिया में सरहुल जैसे उत्सव हमें पर्यावरण की याद दिलाते हैं। यह रस्में सरहुल को रौनक देती हैं। और हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, दरअसल आदिवासी जनजातियों से सीखने के लिए है बहुत कुछ।

सरहुल उत्सव में नाच गाने का मजा ही अलग है। यह त्यौहार खुशी से भरा होता है। लोग सुबह से शाम तक नाचते गाते हैं। ढोल की थाप पर पैर धूल उड़ाते हैं। इस आदिवासी नृत्य में कई प्रकार हैं। जैसे करमा नृत्य, जहां युवक युवतियां मिलकर नाचते हैं। यह नृत्य प्यार और खुशी का प्रतीक है। गीत तो सरहुल के विशेष ही होते हैं। वे साल देवता की स्तुति करते हैं। गीतों में प्रकृति की सुंदरता का वर्णन होता है। जो सच में लाजबाब लगता है। महिलाएं मधुर स्वर में गाती हैं। पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हैं। जैसे मांदर, नगाडा और बांसुरी। यह संगीत जंगल की हवा में घुल जाता है। और नया सबेरा सा लाता है।

सरहुल

सरहुल उत्सव में खेल भी होते हैं। युवा कुश्ती लडते हैं जो मजेदार होता है। बच्चे दौड लगाते हैं और फिर विजेताओं को पुरस्कार दिए जाते हैं। इसके बाद शाम को आग के चारों तरफ बैठकर और कुछ खड़े होकर नाच करते हैं। कुछ लोग कहानियां सुनाते हैं। पुरानी कथाएं जो पीढी दर पीढी चलती हैं। यकीन मानिए यह दृश्य कमाल का होता है। सरहुल के खाने की तो बात ही निराली है। लोग देसी मुर्गी, चावल और सब्जियां बनाते हैं। गुड की मिठाई मिलती है। यह भोजन सादा लगता है लेकिन स्वादिष्ट बहुत होता है। सभी लोग मिलकर खाते हैं। यह उमंग सरहुल को साकार बनाती है। यह त्यौहार खुशी और एकता का संदेश देता है

सरहुल आदिवासी संस्कृति का आईना है। झारखंड के आदिवासी प्रकृति को देवता मानते हैं। वे साल पेड को पवित्र मानते हैं। मान्यता है कि साल देवता गांव की रक्षा करता है। उनका यह भी मानना है की सरहुल में उसकी पूजा से फसल अच्छी होती है। परंपराएं पीढी दर पीढी चलती हैं। पहान की भूमिका भी इस उत्सव में महत्वपूर्ण होती है। वह गांव का आध्यात्मिक नेता होता है। ऐसा कहा जाता है की वह देवताओं से बात करता है। मान्यता है कि पहान को सपने में भी भगवान के संकेत मिलते हैं। सरहुल में वह गांव की भलाई के लिए पूजा करता है।

आदिवासी लोग सरहुल में शराब भी पीते हैं। यह हदिया नाम की देसी शराब होती है। यह चावल से बनती है। मान्यता है कि इससे देवता और भी खुश होते हैं। लेकिन ज्यादा पीना मना है। यह परंपरा खुशी का हिस्सा है। पहले से ही सरहुल में विवाह होते हैं। युवक युवतियां नाच में साथी चुनते हैं यह कितना खास है। यह परंपरा संस्कृति को सच में जीवित रखती है।

सरहुल आज भी जीवित है, लेकिन इसमें बहुत बदलाव आया है। शहरों में रहने वाले आदिवासी लोग इसे मनाते हैं। वे गांव लौटते हैं या शहर में जश्न मनाते हैं। इसके अलावा आधुनिक समय में सरहुल पर्यटन को बढावा देता है। पर्यटक इसे देखने आते हैं। वे नाच गाने का मजा भी लेते हैं। नई पीढी सरहुल को सोशल मीडिया पर साझा करती है। वीडियो और फोटो से दुनिया को दिखाती है एवं यह संस्कृति को फैलाता है। देश और प्रदेश की सरकार सरहुल को प्रमोट करती है, झारखंड में सरहुल महोत्सव होते हैं। यह त्यौहार आधुनिकता और परंपरा का संजोग है

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Hello! I Pardeep Kumar

मुख्यतः मैं एक मीडिया शिक्षक हूँ, लेकिन हमेशा कुछ नया और रचनात्मक करने की फ़िराक में रहता हूं।

लम्बे सफर पर चलते-चलते बीच राह किसी ढ़ाबे पर कड़क चाय पीने की तलब हमेशा मुझे ज़िंदा बनाये रखती
है।

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